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मानविकी अनुसंधान की वैज्ञानिक पद्धति / 27
आरंभ में ही कोई परिकल्पना अर्थात् “सिनाप्सिस” बना लेने से शोध की संभावनाएँ ही समाप्त हो जाती है। किन्तु यह कथन अधिक तर्कसंगत नहीं है। वस्तुतः विषय-निर्धारण के पश्चात् परिकल्पना से एक दिशा निर्धारित तो हो जाती है, किन्तु उसमें संशोधनपरिवर्द्धन का मार्ग रुद्ध नहीं होता। शोधार्थी का अध्ययन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जाता है, त्यो -त्यों वह अपनी परिकल्पना में भी उपेक्षित परिवर्तन करते रहने के लिए स्वतन्त्र होता है। यह परिवर्तन परिकल्पना के मूल ढाँचे को नष्ट नहीं करता, बल्कि उपयोगी बनाता है। परिकल्पना में परिवर्तन-परिवर्द्धन के लिए शोधकर्ता व्यवस्थित ढंग से तर्कपूर्वक अपने विषय का अनुसंधान करता है। ज्ञान-प्राप्ति की आकाँक्षा बढ़ती जाती है तथा अपना अध्ययन भी उसे रुचिकर लगने लगता है। उसके सामने एक परिकल्पना होती है और उसे अपनी मंजिल का भी ध्यान रहता है जिससे वह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए निरंतर उत्साही बना रहता है
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शोधार्थी के सामने जो सामग्री होती है, उसका वह वैज्ञानिक ढंग से परीक्षण करता है तो उसे सही निष्कर्षो तक पहुँचने में सुविधा होती है। प्रसिद्ध विद्वान जॉर्ज बर्ग के अनुसार वैज्ञानिक पद्धति के लिए "वैज्ञानिक निरीक्षण, विभाजन और तथ्यों की व्याख्या” परमावश्यक है। यहाँ वैज्ञानिक निरीक्षण शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है । हम सहज रूप में जो कुछ देखते हैं, वह वैज्ञानिक निरीक्षण से भिन्न है। जब हम किसी वस्तु पर विशेष उद्देश्य से दृष्टि डालते हैं, तब उसे वैज्ञानिक निरीक्षण कहा जाता है। इस निरीक्षण के बाद हम उस वस्तु का वैज्ञानिक ढंग से विभाजन भी करते हैं। इस विभाजन से वस्तु के अंग-प्रत्यंग का पृथक् ज्ञान सुलभ हो जाता है। पृथक् किए हुए तत्त्वों की वैज्ञानिक ढंग से सप्रमाण व्याख्या आवश्यक होती है। इस व्याख्या से विषय के आन्तरिक रहस्यों का समझना सरल हो जाता है तथा शोधकर्त्ता को भी अपने बढ़ते हुए ज्ञान के चमत्कार पर हर्षातिरेक का अनुभव होने लगता है। शोधकर्ता अपने तथा पूर्व शोधकर्ताओं के ज्ञान के आधार पर अपने ज्ञान का परिमार्जन भी करता जाता है तथा ज्ञान की सीमाएँ स्वतः विकसित होती जाती हैं ।
शोध की इस प्रक्रिया में जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बातें ध्यान में रखनी होती हैं, वे हैं- विषय का सही निर्वाचन तथा सोच-समझ कर बनाई गई परिकल्पना । कई बार शोधार्थी शीघ्रतावश विषय का चयन कर लेता है और अपना अध्ययन पर्याप्त आगे बढ़ा चुकने पर उसे ज्ञात होता है कि उस विषय पर पहले ही शोध कार्य हो चुका है । ऐसी स्थिति में उसके सामने एक ही विकल्प रह जाता है कि वह पूर्ववर्ती शोध कार्य का पुनराख्यान करे । फलतः विवश होकर उसे अपनी परिकल्पना को नया रूप देना पड़ता है तथा पूर्व में किया हुआ उसका अध्ययन भी संशोधन की सीमा में आ जाता है। कुछ शोधार्थी इस बात की चिन्ता नहीं करते कि पूर्ववर्ती कार्य का ही वे विष्टप्रेषण या अन्य प्रकार से पुनः प्रस्तुति क्यों कर रहे हैं ? ऐसी स्थिति में वे शोध के नाम पर पूर्ववर्ती कार्य की नकल प्रस्तुत करके
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