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8/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि
अरी आँधियों ! ओ बिजली की दिवा-रात्रि ! तेरा नर्तन ।
आलोचक इन दोनों उदाहरणों में “तेरे” व “तेरा” शब्दों पर आपत्ति करते रहे हैं । उनका यह मत बनता रहा है कि प्रसादजी ने पहले उदाहरण में बहुवचन के लिए एक वचन शब्द “तेरे" का प्रयोग गलत किया है तथा दूसरे उदाहरण में “की” व “तेरा" दो गलत प्रयोग किये हैं । वे कहते हैं कि बिजली की नहीं, “बिजली के” प्रयोग होना चाहिये। “तेरा" का प्रयोग भी वे यह कह कर गलत बताते हैं कि दिवा-रात्रि दो हैं. जब कि “तेरा" शब्द एकवचन है। वास्तव में यह केवल आलोचना है, इसमें शोध का अभाव है। “कामायनी का नया अन्वेषण” ग्रन्थ में पृष्ठ 161 पर आलोचकों के इन मतों का शैव दर्शन सम्बन्धी शोध के आधार पर खण्डन किया गया है और यह शुद्ध मत व्यक्त किया गया है कि पहले उदाहरण में “तेरे" शब्द का प्रयोग अमरता के लिए हुआ है। अमरता एकरूप है, उसके पुतले अनेक हैं । प्रलय के समय वे पुतले अपनी अनेक रूपता खोकर एकरूप में आ चुके थे। इसी प्रकार “बिजली की दिवा-रात्रि” में बिजली घने बादलों के कारण दिवा यानी दिन भी रात्रि के समान बन गया है। बिजली चमक कर बादलों के होने का संकेत दे रही है। यह रात्रि बिजली की रात्रि है, जो दिवा (दिन) से बनी है। यह “दिन” से बनी हुई “रात्रि” ही नर्तन (नाच) कर रही है। इसलिए “की” और “तेरा” दोनों शब्दों का प्रयोग प्रसादजी ने बहुत सही ढंग से किया है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि शोध की यह दृष्टि यदि न अपनाई जाए तो कवि प्रसाद के साथ आलोचक अन्याय ही करते रहेंगे। अत: यह मानना कुछ अर्थ रखता है कि साहित्य के सही अर्थ और भाषा के सही प्रयोग को समझने के लिए शोध की बहुत उपयोगिता है ।
शोध के द्वारा हम रचना के उन पक्षों पर भी विचार कर लेते हैं जिनका रचना से सीधा सम्बन्ध तो नहीं होता, किन्तु जिनको जाने बिना रचना के भाव को पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं किया जा सकता और न रचना करने वाले के प्रयोजन को समझा जा सकता है । रचना के शुद्ध लिखित रूप का निर्णय भी शोध के बिना संभव नहीं है। रचना करने वाला सदा जीवित नहीं रह सकता और जीवित भी हो तो हर किसी को वह मिल नहीं सकता। तब किससे पूछे कि उसकी रचना का सही लिखित रूप क्या है ? शोध करने वाला ही रचना के सही पाठ का निर्णय करता है।
अतः हम कह सकते हैं कि शोध की साहित्य के क्षेत्र में भी बहुत उपयोगिता है ।
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