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अकबर की धार्मिक नीति
यपि क प्रारम्भ में इतना उदार बौर सहिष्णु नहीं था, प्रारम्भ में तो उसे इस्लाम में अत्यधिक बास्था थी और वह इस्लाम का सच्चा अनुयायी था किन्तु विभिन्न परिस्थितियों से और घटनाओं से उसकी • पार्मिक नीति विचार और दृरि कोण में परिवर्तन हुआ । अब हम उन परिस्थितियों का वर्णन करेंगे जिन्होने अकबर की धार्मिक नीति को प्रभावित किया । १. तत्कालीन अशांति के निवारण के लिये हिन्दुओं के सहयोग की बाव
श्यकता -
जब अकबर का राज्यारोहण या उस समय सारा देश विभिन्न स्मतंत्र राज्यों में विभक्त था । काकु का पोत्र उसके सौतेले भाई मिर्जा हवीस के नेतृत्व में लगभग स्वतंत्र हो चुका था । बदरका में अकबर का चचेरा माई सुलेमान मिार्जा स्वतंत्र शासक था उम्र में बड़ा होने के कारण वह अपने आपको पूरी राज्य का दावेदार समझता था । कन्धार सामरिक दृष्टि से महत्व का होने से फारस के राजा की दृष्टि उस पर लगी हुई थी। सुलेमान मिर्जा ने काकु आकर एकीम मिर्जी से मिल कर उकबर के विरुद्ध षडयंत्र क्यिा । हकीम मिर्जा का जो संरखाक था मुनीम : सां, वह अकबर के संरक्षक और प्रधान मंत्रि बैराम खां से कैमनस्य रखता था । अकबर का एक प्रमुख सरदार शाह वल माली गुल्लम दुला उसका विरोध कर रहा था । अकबर का प्रसिद्ध अमीर और उच्च पदाधिकारी तारदीबैग भी अकबर के संरताक बराम खां से शत्रुता रखता था । इसप्रकार! सभी प्रमुख अमीर और स्वयम् अकबर के सम्वन्धि ही उससे विश्वास पात कर रहे थे।
जिस समय अम्बर गददी पर बैठा उस समय उसकी आयु केवल तेरह वर्ण की थी । इतनी छोटी अवस्था में उसके लिये सम्पूर्ण शासन पार सम्भाल सकना असम्भव था । इस लिये उसे स्वामिभक्त संरक की बत्या. धिक आवश्यकता थी । सपाक पद के लिये चार दावेदार थे - मुनीम सां:
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