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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ਮਰਦ ਛੀ ਚ ਜੀਓ व्यवस्था के लिये अपराधी को दण्ड देना बावश्यक समझता था और बिना किसी भेद भाव के वरड देता था । सप्ताह में दो दिन वह राज्य के सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में दरबार में बैठकर अपने सामने प्रस्तुत होने वाले या नीचे के न्यायालयों से अपील के लिये जाने वाले मुकदमों को सुनतां था । अकबर की बुद्धि इतनी तीक्ष्ण थी और मानव प्रकृति का उसे इतना अधिक ज्ञान था कि जब वह स्वयं न्याय करता था तो सपिाप्त प्रणाली अपनाता था। उसकी निष्पदा न्याय प्रियता के बारे में अबुल फजल - लिखता है ." सम्राट अपने न्यायालय में सम्वन्धी और अपरिचित में, अमीरों के प्रमुख बार मिसारी में कोई मैद - माव नहीं रखता है ।" २२ जिस समय अकबर का राज्यामिक दुवा धा उस समय वह नाम: मात्र का बादशाह था उसके पास कोई स्थायी राज्य नहीं था । दिल्ली और आगरा उसके अधिकार से निकल चुके थे और उन पर हेमू का आधिपत्थ था | राज्यारोहण के समय पर पंजाब के कुछ मार्गा का ही बादशाह था और वहां भी उसका प्रतिददी और दिल्ली के सिंहासन का दावेदार सिकन्दर शाह सर उसके वंश और राज्य को समर नष्ट करने को तत्पर था । परन्तु अपनी निरन्तर विजयों से अत पर ने एक शक्तिशाली विशाल और दृढ राज्य स्थापित कर लिया था उसको मृत्यु से पूर्व इस सामाज्य में उत्तर में काश्मीर से लेकर दक्षिण भारत में खानदेश और अलमदनगर के प्रदेश और पूर्व में वंगला से लेकर पश्चिम में गुजरात तक के प्रान्त सम्मिलित थे । उसका कथन था कि" साम्राट को विजय के लिये सदैव तत्पर रहना चाहिये, अन्यथा उसके पड़ोसी उसके विरुद्ध शस्त्र उठा: देगे । सेना को रण शिक्षा मिलती ही रहनी चाध्येि, ताकि प्रशिक्षार्गा के अभाव में वह किसी न हो जाये । " 22-Akbamama : Trans. by II.Beveridge Vol.III P. 387 23 - Ain-1-Akbari Vol. III Trans. by H.S.Jarrett.P.451. For Private And Personal Use Only
SR No.020023
Book TitleAkbar ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherMaharani Lakshmibhai Kala evam Vanijya Mahavidyalay
Publication Year1977
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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