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महालक्ष्मी व्रत कथा
इति श्री लक्ष्मी पूजा मया प्रोक्ता तव मन्निधौ अग्रो अग्रहने मासे कृत्वागात् हरिमन्दिरभ ।।१६४
लक्ष्मीपूजा का माहात्म्य ब्रह्मघाती मुरापायी. पतितस्तथा गोत्रद्रोही कुलच्छेदी मिथ्याचारी च पातकः । पवित्रो भवति सततं लक्ष्मीपूजा कृतं मति ॥१६५
... 'भयं नास्ति महापापस्य का कथा
अपुत्रो लभते पुत्रान् बढी मुच्येत बन्धनात रोगी भीतो भयाच्चैव मर्चजीववश नयेत ॥१६६ इति श्रीभविष्यपुगगी लक्ष्मीमाहात्म्ये केदारखगडे अग्रवैश्य वंशा
श्री लक्ष्मी की यह पूजा मैंने तुम्हारे पास कही है । इसे अगहन मास में सम्पादित करके अग्र हरिमन्दिर को गया था। १६४
चाहे कोई ब्राघाती हो, सुरा पीने वाला हो, पतित हो, गोत्र (कुल) का द्रोही हो, कुल का विनाश करने वाला हो, मिथ्याचारी हो, पातक हो, वह लक्ष्मी की पूजा कर लेने पर पवित्र होजाता है । उसे किसी का भी भय नहीं रहता, महा पातक की तो बात ही क्या है ? जिसके पुत्र न हो, उसे पुत्र होजाता है । जो बद्ध हो, वह बन्धन से छूट जाता है। रोगी और भीत भय से छुटकारा पाजाता है । सब प्राणी उसके वश में श्राजाते हैं । १६५.१६६
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