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अग्रवाल जाति का प्राचीन इतिहास नहीं है । पर यदि हम पाणिनीय अष्टाध्यायी के आधार पर प्रतिपादित गोत्र के अभिप्राय को दृष्टि में रखें, तो यह समस्या बहुत कठिन प्रतीत न होगी। प्राचीन, भारत में ज्यों ज्यों आबादी बढ़ती गई, और समाज का विकास होता गया, स्वाभाविक रूप से त्यों त्यों कुलों व परिवारों की संख्या भी अधिक होती गई । पहले से विद्यमान कुलों के विभाग होने लगे । विशेष : योग्यता. के प्रतापी पुरुषों ने अपना पृथक् कुल स्थापित किया और इस तरह एक नये गोत्र का प्रारम्भ हुवा । पुराने राज्यों ने भी नई बस्तियां बसाई । अनेक महात्वाकांक्षी, प्रतापी मनुष्य नये स्थानों पर जाकर बसने लगे, वहां एक पृथक् राज्य बन गया। इन प्रतापी मनुष्यों के नेता से एक नया वंश चला, और विविध मनुष्यों ने अपने नये पृथक् गोत्र शुरू किये । धर्मशास्त्र के लेखक भी इस तथ्य को प्रांखों से ओझल नहीं कर सके। उन्होंने भी अनुभव किया, कि गोत्र कोई चार व आठ तक सीमित नहीं हैं, उनकी संख्या तो हजारों लाखों में हैं। प्रवर मञ्जरी में लिखा है:
गोत्राणां तु सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च
ऊन पश्चाशदेवैषां प्रवरा ऋषि दर्शनात् ।।' धर्मशास्त्र के लेखकों ने गोत्रों की इतनी अधिक संख्या को देखकर ही यह अनुभव किया था, कि उसे धार्मिक विधिविधान में आधार रूप से ग्रहण नहीं किया जा सकता । इसीलिये उन्होंने धार्मिक कृत्यों के लिये मुख्य आधार प्रवर को माना है। किसी के पूर्वजों में यदि कोई
1. प्रवरमञ्जरी पष्ठ ६
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