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आचा०
॥८७०॥
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पण नहीं, तेवीन रीते तेमनी साथे बीजे पण जवानो निषेध करे छे. एटले साधुने स्थंडिल (विचार) भूमिए जर्बु होय, अथवा | विहार (भणबा) ना स्थळे जq होय, तो अन्य तीथि विगेरे साथे दोषोनो संभव होवाथी न जवु, ते कहे छे स्थंडिल साथे जतार सूत्रम् प्रामुक जल स्वच्छ होय, अस्वच्छ होय, घणुं के थोडं होय, तो तेनाथी जग्या स्वच्छ करतां उपघातनो संभव धाय, अथवा जोडे
॥८७०॥ भणवा जतां सिद्धांतना आलावा गणतां ते पतित साधुने तेवू न रुचवाथी विकथा करी विघ्न करे, ते भय ढ़े अथवा सेह (नवा | शिष्य) आदिने असहिष्णुपणाथी क्लेशनो संभव थाय छे, माटे तेवा साथे साधुए तेवा स्थळमा जर्बु-आवg नहि, तेज प्रमाणे ते ४ | भिक्षुए एक गामथी बीजे गाम जतां के नगरथी बीजे नगर विगेरे स्थळे जतां उपर बतावेल अन्य तीथिओ विगेरे साथे दोषोनो संभव होवाथी जवं नहि-कारण के मात्रुस्थडिल विगेरे रोकवाथी रोग थतां आत्मविराधन थाय, अने मात्रस्थंडिल करवा जतां मासुक, अपामुक ग्रहण विगेरेमा उपघात अने संयमविराधनानो संभव छे, एज प्रमाणे भोजन [गोचरी] करतां पण दोषोनो संभव समजवो, सेहादि विमतारण (शिष्यने कुमार्गे दोरववा) विगेरेनो दोष पण थाय. हवे तेमना दाननो निषेध करे छे.
से भिक्खू वा भिक्खूणी वा० जाव पविष्ठे समाणे नो अन्नउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा परिहारिओ वा अपरिहारियस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दिज्जा वा अणुपइज्जा वा ।। [मू०५]
ते साधु गृहस्थीना घरमा पेठेल होय, अथवा ते साधु उपाश्रयमांरहेल होय, तो ते साधुए अन्य तीथिओ विगेरेने दोषनो संभव होवाथी आहार पाणी विगेरे पोते आपq नहि, तेम गृहस्थ पासे पोते अपावनहि, जो आपतां देखे तो लोको एवं माने के आसाध | आवा अन्यदर्शनीओनी पण दाक्षिण्यतां (शरम) राखनारा छे. वळी तेमने टेको आपवाथी असंयममा प्रवर्तन विगेरेना दोषो थाय के.
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