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भाचा०
॥८५०॥
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ज्ञान पण निष्फळ जाय हे, कारण के ते ज्ञान अर्थपणुं क्रिया साथै छे, कारण के जेनी जे अर्थ माटे प्रवृत्ति होय, तेनुं तेमां प्रधानपशुं छे, अने ते सिवायनुं अप्रधान (गौण) छे, ए न्याय छे, संविद् वडे विषय व्यवस्थाननुं पण अर्थ क्रियापणाथी अर्थप क्रियानुं प्रधानपशुं बतावे छे, अन्वय व्यतिरेको पण क्रियामां सिद्ध थाय छे, कारण के सम्यक चिकित्सानी विधि जाणनारो यथार्थ औषधी प्राप्ति करे, तो पण उपयोग क्रिया रहित होय तो ते वैद रोगने दूर करी शकतो नथी. तेज कबुं छे. के --
शास्त्राण्यधीत्यापि भवंति मूर्खाः । यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ॥ संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि । किं ज्ञानमात्रेण करोत्यऽरोगम् ॥ १॥
शास्त्रोने मणीने पण केटलाक क्रिया न करनारा मूर्ख होय छे, पण जे थोडं भणेलो होय पण क्रिया करनारो होय ते विद्वान् छे. कारण के औषध चिंतवो, पण ते चिंतवेलं औषध विना क्रिया करे शुं रोगीने निरोगी बनावी शकशे के ? वळीक्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतं यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ १ ॥ पुरुषोने क्रियाज फलदायी छे. पण ज्ञान फलदायी नथी कारण के स्त्री. खावाना पदार्थ, तथा भोगववानी वस्तुओनो जाणनार एकला ज्ञानथी सुखीओ यतो नथी! पण ते क्रियाथी युक्त होय ते माणस पोतानी इच्छा प्रमाणे अर्थ मेळवनारो थाय छे.
जो पूछता हो के केवी रीते ! तो कहुं हुं. के “निश्वयथी देखेलामां न उत्पन्न धएलुं नथी, " अने ज्यां सकल (वधा ) लोकमां प्रत्यक्ष सिद्ध अर्थ होय त्यां बीजं प्रमाण मागी शकाय नहीं ! तथा परलोकनुं सुख वांच्छतां होय, तेमणे पण तप चारित्रनी क्रियाज करवी, जिनेश्वरनुं वचन पण तेज कहे छे.
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सूत्रम्
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