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आचा०
॥ ८१६॥
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हवे उपसंहार करता तीर्थङ्करना आ सेवनथी वीजा जीवोने प्ररोचनता थाय, ते बताववा कहे छे.
एवं तु समणुचिन्नं, वीरवरेणं महाणु भावेणं । जं अणुचरित्तु धारा, सीवमचल जन्ति निव्वाणं ॥ २८४ ॥ आ प्रमाणे की विधि ज्ञानादि भाव उपधान अथवा तपने वीरवर्द्धमान स्वामिए स्वयं आदर्यो छे, तो वीजा पण मोक्षामिलापीए आदरवो. ( गाथार्थ )
ब्रह्मचर्य अध्ययननी निर्युक्ति समाप्त थइ. हवे सूत्रानुगममां सूत्र उच्चारखं ते कहे छे
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अहासुयं वइस्सामि, जहा से समणे भगवं उट्ठाए ॥ संखाए तंसि हेमंते, अहुणो पइए इत्था ||१|| आर्य सुधर्मास्वामी ने पूछवाथी जंबूस्वामीने पोते कहे छे, यथाश्रुत अथवा यथा सूत्र हुं कहीश, ते आ प्रमाणे
ते श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उद्यत विहार स्वीकारीने सर्व अलंकार (भूषण) त्यागीने पांच मुठी लोच करीने इंद्रे आपला एक देवदृष्य वस्त्र धारण करी सामायिकनी प्रतिज्ञा उच्चरीने मनपर्यवज्ञान उत्पन्न थएला आठ प्रकारना कर्म क्षय करवा माटे अने तीर्थ वा माटे उद्यत विहारवाळा बनीने तखने जाणीने ते हेमंत रुतुमां मागशर (गुजराती कारतक) मासमां वद १०ना रोज प्राचीनगामिनी छाया (आथमतो सूर्य) थतां दीक्षा लइने विहार कर्यो. अने कुंड ग्रामथी वे घडी दीवस बाकी रहे कमर गाने आव्या अने त्यां भगवान आव्या पछी अनेक प्रकारना अभिग्रह धारण करीने घोर परीसह सहन करता महासखपणे मलेच्छोने पण शांति पमाडता बार वर्षथी कांइक अधिक छद्मस्थपणे मौनव्रत लइ तप आदर्यो अहीयां भगवाने सामायक उच, त्यारपछी इंट्रें
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सूत्रम् ||८१६॥