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आचा०
॥ १०६६॥
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न आवे तथा जीवात न होय, तेवा आराम के रहेवाना मकानमां एकांतमां बेसी माटीनी कुंडी विगेरेमां टट्टी के पेसाब करीने ते कुंडी विगेरेने लइ ज्यां निर्जीव स्थान होय त्यां परउवे, आज साधुनुं सर्वस्थ अने समाधि के के स्त्रपरने पीडा न थाय, तेम स्थंडिल जर्बु.
“शब्द सप्तक” – चोथुं अध्ययन.
जीजा साथे चोथानो आ प्रमाणे संबंध छे, के पहेलामां स्थान, बीजामां स्वाध्याय, त्रीजामां स्थंडिल विगेरेनी विधि बतावी. ते त्रणेमां रहेला साधुने अनुकूल के पतिकूल शब्दो संकाय तो ते सांभळीने साधुए राग द्वेष न करवो, आ संबंधे आला आ अध्ययनना चार अनुयोग्यद्वारमां नाम निष्पन्न निक्षेपामा “शब्द सप्तक" एवं नाम छे, एना नाम स्थापना सुगम निक्षेपाने छोडी द्रव्य निक्षेपो नियुक्तिकार पाछली अडवी गाथावडे बतावे छे.
[ द
ठाणाई भात्रो वनकसिगं स भावो य ] | दव्यं सहपरिणयं भावो उ गुण य कित्ती य ।। ३२३ ॥
नो आगमधी द्रव्य व्यतिरिक्तमां शब्द पणे जे भाषा द्रव्यो परिणत थाय छे, ते अहिआं लेवां, भावशब्द तो आगमथी जेने | शब्दोमां उपयोग होय, अने नो आगमथी अहिंसादि लक्षणवाळा गुणो समजवा, कारण के आ हिंसा जुठ वगेरथी दूर रहेवुं, ते गुणोथी प्रशंसा पामे छे अने कीर्त्ति तो जे तीर्थकर प्रभुने चोत्रीश अतिशय प्रकट धतां बीजा करतां अधिक रुप संपदायुक्त पोते थवाथी लोकमां भा अन् देव छे, एम मसिद्ध थाय ते कीर्त्ति छे.
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सूत्रम् | ॥१०६६॥