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आचा
सूत्रम्
१२१८॥
उत्तम गुणोधी वध, आ प्रमाणे यया पछी सुगंधी वासक्षेपवडे मुठी भरीने शिष्यना माथामा गुरु महाराज नांखे पछी शिष्य बांदण दइने प्रदक्षिणा करीने आचार्यने नमस्कार करतो फरी वांदे, ए प्रमाणे बधुं क्रिया अनुष्ठान करे आ प्रमाणे त्रण प्रदक्षि-15 गाओ करीने शिष्य उभो रहे स्यारे बीजा साधुओ तेना माथामां वासक्षेप नांखे, अथवा यति जनने सुलभ केशर नांखे, पछी कायोत्सर्ग करावीने आचार्य कहे हे शिष्य! सांभळ तारो कोटीक गण छे, अमुक कुळ छे, वैरी शाखा, अमुक आचार्य, अमुक उपाध्याय पचर्तिनी साध्वी अमुक छे, तथा बीजा वडी दिक्षा आपना योग्य होय ते अनुक्रमे रत्नाधिक याय छे, पछी आंबिल, अथवा नीवि, अथवा पोताना गच्छ परंपरामां आवेलो तप आचारे छे, आ प्रमाणे आ अध्ययन आदि मध्य अंतकल्याण समूहवा भव्यजनना समूडनुं मन समाधान करनार छे ते अध्ययन प्रियना वियोग विगेरे दुःखना आवर्तवाली तथा घणा पायरूप माछलां विगेरेना समूहथी आकूळ विषम संसाररूप नदीने तारवामां समर्थ छे तथा एक दयारूप रस छे. तेथी वारंवार मुमुक्षुए भणबुं आ शीलांकाचार्य करेली शस्त्रपरिज्ञा नामना पहेला अध्ययननी टीका समाप्त थइ ( आ अन्थना श्लोक २२२१ हे.)
॥ इति श्रीआधाराङ्गसूत्रे प्रथमो भागः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥
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