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आचा०
सूत्रम्
॥१८
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(तु शब्द पर्याप्ति वाचक के) वे इन्द्रियादि जीवोनु लक्षण जे दर्शनादि काया, तेटलांन छ भने ते परिपूर्ण छ, तेनाथी वधारे नथीः हवे परिमाण क्षेत्रथी कहे छे. सकाय पर्याप्ता जीवोने संवर्तित लोक प्रतरना असंख्येय भागमा रहेनारा प्रदेश राशी परिमाण (राशि जेटला) छे आ बादर तेजस्काय पर्याप्ताथी असंख्येय गुणा छे त्रसकाय पर्याप्ताथी सकाय अपर्याप्ता असंख्येय गुणा छे. काळथी उत्पन्न यता प्रसकाय जीवो जघन्य स्थानमा बे लाख सागरोपमर्थी नव लाख सागरोपम सुधी समयराशि परिमाण छ | उत्कृष्ट स्थानमा पण चे लाख सागरोपमथी नवलाख सागरोपम परिणापवालान के तेज प्रमाणे शास्त्र कहे छे.
"पडुप्पन्नतसकाइया केवतिकालस्स निल्ले वा सिया? गोयमा? जहन्नपए सागरोवमसयसहस्सपुहत्तस्स | उक्कोसपदेऽवि सागरोवमसयसहस्सपुहत्तम्स"
अर्थ उपर प्रमाणेज छे. हवे अडधी गाथाथी निष्क्रमण अने प्रवेश कहे के. जघन्य परिमाणथी एक ये ऋण अथवा उत्कृष्ट परिमाणथी प्रतरना असंख्येयभाग परिमाणवालान छे. हवे अविरहित निर्गम अने प्रवेशवडे परिमाण विशेष कहे छे. निक्खमपवेसकालो समयाई इत्थ आवलीभागो। अंतोमुत्तऽविरहो उदहिसहस्साहिए दोन्नि ॥१५९॥ दारं ॥ ___जघन्य परिमाणथी अंतर रहित रहे छते, त्रसकायमा उत्पत्ति, अने निष्क्रमण, एक समये एवा वे या त्रणचार थाय. उत्कृष्टथी। अहिआं आवलीकानो असंख्येय भाग मात्र काळ सुधी निरंतर निष्क्रम तथा प्रवेश होय, एक जीवना अंगीकारथी ज्यारे विरह रहित
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