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विकृतिविज्ञान हैं । कोष्ठक में मक्खन के समान पीला वसाग्रन्थियाँ का स्त्राव होता है और विशल्कित अधिच्छदीय कोशा पाये जाते हैं। इसके अन्दर केश उत्पन्न हुए रहते हैं। इस कोष्ठक के एक सिरे पर थोड़ा स्थूलन होता है जिसे निचर्मीय प्रवर्द्धनक ( dermoid pro. cess ) कहते हैं इस प्रवर्द्धनक से दाँत या दाँत का अंश सम्बद्ध रहता है। इस प्रवर्द्धनक का छेद लेने पर उस में अन्य अनेक ऊतियाँ पाई जाती हैं जिन में अस्थि, तरुणास्थि, अवटुका, लसग्रन्थियाँ आदि मुख्य हैं। कभी कभी अवटुकाग्रन्थि के द्वारा भी सम्पूर्ण अर्बुद पुंज बनता है। इसे बीजग्रन्थीय गलगण्ड (struma ovari ) कहते हैं । यह भौणिकार्बुदीय तथा साधारण होता है।
भ्रौणार्बुदाभ या मिश्रित अर्बुद (Teratoid or mixed tumours)
इन अर्बुदों में कोई निश्चित विन्यासपूर्वक ऊतीय कोशा नहीं रखे होते । इन में सभी प्रकार की ऊतियाँ मिलती हैं। कास्थि, अस्थि, ग्रन्थीक ऊति, शल्काधिच्छदादि ये सभी अदुष्ट अर्बुद हैं और ऊतीय कोशा सभी पूर्णतः विभिन्नित प्रकार ( differentiated type ) के होते हैं। प्रायः कभी कभी एक प्रकार की ऊति अधिक वृद्धि करने लगती है जिसके कारण उसमें मारात्मकता भी पाई जा सकती है। जब योजी ऊति की अति वृद्धि होती है तो संकटार्बुद तथा जब अधिच्छदीय ऊति बढ़ती है तो कर्कटार्बुद उत्पन्न होते देर नहीं लगती। कर्कटार्बुदोत्पत्ति संकटार्बुदोत्पत्ति की अपेक्षा अधिक देखी जाती हैं। मारात्मकता की उत्पत्ति होने पर इनके विस्थाय स्वतन्त्रतया मिलते हैं और इनकी दुष्टता बहुत अधिक प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है। ये अर्बुद बहुधा वृषणों में बनते हैं और प्रायः ठोस होते हैं। कभी कभी छोटी छोटी कई कोष्ठिकाएँ भी बन सकती हैं। इन्हीं के कारण इन्हें वृषण का तन्तुकोष्ठीय रोग ( fibrocystic disease of the testis) भी कह कर पुकारा जा चुका है। इनमें कभी कभी जराधधिच्छदार्बुद भी मिला है। यद्यपि जरायु अंकुरों के तत्वों को बहुधा नहीं देखा जा सका। जरायु ऊति श्रौणार्बुदीय ही होती हैं और इसमें भक्षण शक्ति की विपुलता के परिणामस्वरूप अर्बद में अन्य दूसरी ऊति नहीं मिल पाती।
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