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विकृतिविज्ञान ४. आभ्यन्तरफिरंग में लसप्रन्थिपाक (lymphadenitis) एक प्रमुख घटना है। सम्पूर्ण शरीर की लसग्रन्थिकाएँ बड़ी हो जाती हैं। यह लसग्रन्थिकीय वृद्धि बहुत अधिक तो होती नहीं पर रहती महीनों वा वर्षों तक है। अन्तः कृपरीय प्रन्थियाँ ( epitrochlear glands ) तथा पश्चग्रैविक लसग्रन्थकों ( posterior cervical nodes) की वृद्धि विशेषकर होती है। कई चिकित्सक फिरंग रोग का निदान करते समय काहन या वासरमैन कसौटी के परिणामों के लिए प्रतीक्षा न करके अन्तः कूर्पकीय ग्रन्थियों की वृद्धि का ज्ञान करके ही फिरंगोपचार प्रारम्भ कर देते हैं और शतप्रतिशत लाभ उठाते हैं। प्रवृद्ध लसक ग्रन्थियों का अण्वीक्षण करने पर उनमें या तो प्रसर परमचय (अतिघटन ) मिलता है या यदिमका की तरह अधिच्छदाभ कोशा या महाकोशा मिलते हैं। ___५. त्वचा में आभ्यन्तर फिरंग के जो विक्षत बनते हैं वे कई प्रकार के होते हैं पर वे सब होते संमित हैं । वे बहुरचनान्वित ( polymorphous ) होते हैं अर्थात् एक ही समय वे अनेक स्वरूप के हो सकते हैं। ये विक्षत ताम्रवर्ण के होते हैं और उनकी बही रेखा वृत्त ( circle ) के एक खण्ड ( segment ) जैसी होती है । वे ऊतियों का नाश नहीं करते जैसा कि आभ्यन्तर फिरंग के अन्य विक्षत करते हैं। यदि कोशीयसंचिति कम होती है तथा वाहिन्य विस्फार खूब होता है तो वे रोमान्तिका के दानों की भांति उद्वर्णिक ( macular ) होते हैं। यदि कोशा अधिक हो तो वे उत्कणिक ( papular ) होते हैं। यदि उनमें उपसर्ग लग जावे तो वे उत्पूयिक ( pustular ) हो जाते हैं। आगे चलकर जब और भी विकृति बढ़ती है तो नाशकारी सिध्म ( necrotic patches ) बन जाते हैं और एक प्रकार की पर्पटी ( crust ) जम जाती है जिसे उच्छुक्तिका ( rupia ) कहते हैं ।
फिरंगार्श ( condylomata) सदैव आई भाग ( भग, गुद) में होता है उसमें असंख्य सुकुन्तलाणु भरे रहते हैं।
हाथ की हथेलियों और पैरों के तलवों में एक शल्कीय ( scaly ) अवस्था भी देखी जाती है।
नख भंगुर और विदरित ( fissured ) होकर कुनखता हो सकती है।
६. श्लेष्मलकला पर विक्षत होने के कारण स्वरसाद हो सकता है। मुख, ग्रसनी, योनि की श्लेष्मलकला पर सिध्म मिल सकते हैं। ये सिध्म चिपिटित उपरिष्ठ विक्षत मात्रा होते हैं और इन्हें देख कर ऐसा लगता है कि मानो कोई शम्बूक (घोंघा snail ) वहाँ चलता रहता हो और उसके द्वारा ये बनाए गये हों। इन सिध्मों में असंख्य सुकुन्तलाणु होते हैं और वे घोर उपसर्गकारक होते हैं।
७. यद्यपि केन्द्रिय वातनाडीसंस्थान इस अवस्था में बहुत पहले से ही उपसृष्ट हो जाता है परन्तु बहिरन्तर्भवफिरंग (तृतीयावस्था) के प्रारम्भ होने से पहले कोई अधिक भयानक लक्षण देखने में आता नहीं । इस अवस्था में तो वातनाडीशूल, अक्षिपेशियों का घात आदि लक्षण देखे जा सकते हैं। मस्तिष्कोद में लसीकोशाओं
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