________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
फिरङ्ग
५६१ से भिन्न हुआ करते हैं यह नहीं भूलना चाहिए । फिरंगार्श (condylomata) उन्नत, आर्द्र, त्वक्शोथजन्य सिध्म ही होते हैं वे सदैव उन स्थितियों में उत्पन्न होते हैं जहाँ दो त्वचाओं के धरातल एक दूसरे से मिलते हैं। ऐसे स्थान स्त्रियों के उपस्थ तथा स्त्री पुरुषों के गुद प्रदेश में हुआ करते हैं। इनमें सुकुन्तलाणु बहुत बड़ी संख्या में मिलते हैं तथा ये अत्यधिक उपसर्गकारक होते हैं। इन्हीं स्थलों पर कभी-कभी उष्णवातीय चर्मकीलें ( warts ) बना करती हैं अतः दोनों के अन्तर को समझे रहना आवश्यक है।
आभ्यन्तरफिरंग के अन्य दो विक्षतों में एक कृष्णमण्डलपाक ( iritis ) होता है और दूसरा पर्यस्थपाक (periostitis ) मिलता है। इस पर्यस्थपाक के कारण ही अस्थियों में वेदना हुआ करती है जो रात्रि में अधिक बढ़ती है। यह वेदना शिर और टाँगों की अस्थियों में बहुत होती है। भावमिश्र ने इसी को आमवात इव शूल लिखा है।
अण्वीक्षतया देखने पर कोई विशेष लक्षणसम्पन्न विक्षत नहीं मिलते। ग्रन्थियों में जालकान्तश्छदीय परमघटन सौम्यरूप का पाया जाता है तथा ऊतिनाश का कोई प्रमाण मिलता नहीं है। क्षुद्र वाहिनियों के बाह्य चोल (adventitia externa) तथा परिवाहिन्यकंचुकों (perivascular sheaths) में व्रणशोथात्मक भरमार देखी जाती है।
इस अवस्था के चिह्न शरीर में संमित ( symmetrical ) होते हैं तथा वे अनस्थायी ( transient) स्वरूप के होते हैं तथा वे चिकित्सा करने से चले जाते हैं। आयुर्वेदज्ञ उसे साध्य ( कष्टसाध्य ) मानते रहे हैं ।
संक्षेप में आभ्यन्तर फिरंग (द्वितीयावस्था) में निम्न विशेषताएँ देखने में आती हैं
१. बाह्य फिरंग के पश्चात् कुछ समय तक गुप्तावस्था रहती है जिसमें सब कुछ सुधरा हुआ दिखलाई देता है। इसे हम आभ्यन्तर फिरंग के पूर्वरूप द्वारा प्राप्त काल कह सकते हैं।
२. उपसर्ग के २-३ मासोपरान्त बहिस्तरीय ऊतियों (ectodermal tissues) में ऊतिक्रिया उत्पन्न होती है जिसके फलस्वरूप त्वचा, श्लेष्मलकला और केन्द्रिय वातनाडीसंस्थान में विक्षत सर्वप्रथम उत्पन्न होने लगते हैं। ये विक्षत कुछ महीनों तक रह कर फिर विलुप्त हो जाते हैं। इस अवस्था में अतिनाश न होने के कारण व्रणवस्तु नहीं बनती। परन्तु कहीं कहीं ताम्रवर्णीय रंगा ( coppery pigmentation ) देखा जा सकता है।
३. एक बार त्वचा, श्लेष्मलकलादि में बने विक्षतों का लोप हो जाने के पश्चात् यदि स्थानिक प्रतिकारिता शक्ति घट गई तो मृतप्राय सुकुन्तलाणुओं में से कुछ पुनर्जीवित हो जाते हैं और वहाँ पर नये सिरे से फिर विक्षत देखे जा सकते हैं। इस प्रकार बार बार स्थान पुनरुपसृष्ट होता रहता है और उपसर्ग कभी भी समाप्त नहीं हो पाता।
For Private and Personal Use Only