________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
[६]
की उत्पत्ति में अग्नि का महत्त्व - ९८५, वातिक ग्रहणी - ९८७, पैत्तिक ग्रहणी - ९८९, श्लैष्मिक प्रहणी - ९९०, सान्निपातिक ग्रहणी - ९९१, संग्रहग्रहणी, घटीयन्त्र ग्रहणी या श्रमवात ग्रहणी - ९९१, ग्रहणी - आधुनिक विचारकों की दृष्टि में - ९९२, आमग्रहणी - ९९३, जीवाणुजन्य और श्रमीबाजन्य ग्रहणियों में अन्तर - ९९७, दण्डाण्विक ग्रहणी - ९९८, कीटाणुग्रहणी - १०००, ट्रापीकलस्त्र - १००१, अर्श प्रकरण - १००३, शनिरुक्ति - १००५, जातस्योत्तरकालज अर्श-१००८, वातार्श - १००९, पित्तार्श - १०१०, श्लेष्मा - १ -१०११, द्वन्द्वज अर्श - १०१२, त्रिदोषजार्श - १०१३, सहजार्श - १०१४, अर्श का स्थान - १०१७, अर्श सम्प्राप्ति - १०१९, अर्शो का वर्गीकरण - १०१०, अर्शादि में अग्निबल का महत्त्व - १०२० ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
चतुर्दश अध्याय
रोगापहरणसामर्थ्य [ Immunity ] १०२१–१०३६
अप्राप
रसायन तन्त्र और रोगप्रतीकारिता - १०२१, क्षमता के दो प्रकार - १०२२, श्रवाप्तक्षमता - १०२३, बहिर्विष - १०२६, अन्तर्विष - १०२६, कारि - १०२७, रोगाणविक श्राक्रमण और शारीरिक के विशिष्ट उपाय - १०२९, स्थानिक प्रतीकारिता - १०३१, सिद्धान्त - १०३२, अहर्लिकीय पार्श्वशृंखलावाद - १०३२,
व्यंशियाँ - १०२७, प्रतिरक्षा - १०२८, शरीरप्रतिरक्षा
रोगापहरणसामर्थ्य के विविध अर्हीनियस और मदसेन -
वाद - १०३४, बोर्डेवाद - १०३४, सांपरीक्ष अवलोकन - १०३४, श्राधुनिकवाद - १०३६, जनपदोद्ध्वंस - १७३७ ।
पश्चदश अध्याय
सम्प्राप्ति विमर्श १०४०-१०७६
सम्प्राप्तिपर्याय- १०४१, सम्प्राप्ति पर गंगाधर कविराज का मत - १०४१, चक्रपाणिदत्त - १०४२, इन्दु - १०४२, विजय रक्षित - १०४४, अरुणदत्त - १०४४, हेमाद्रि - १०४४, सम्प्राप्ति के भेद - १०५०, संख्या सम्प्राप्ति - १०५३, विकल्प - १०५४, संख्या और विधि - १०५५, विविध विकार और उनकी सम्प्राप्ति - १०५७ ।
-ope
For Private and Personal Use Only