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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव बनता है वे अन्य शरीरस्थ घटकों से बहुत भिन्न होते हैं तथा इन घटकों का आपस में जैसा सम्बन्ध है वैसा अन्य किसी संस्थान के घटकों में नहीं देखा जाता है।
यदि मस्तिष्क के किसी भाग के अभिरञ्जित छेद ( stained section ) का अध्ययन किया जावे तो उसमें हमें विविध कोशा और तन्तुसमूह प्राप्त होंगे। ये दो भागों में विभक्त किए जा सकते हैं एक वे जिनमें चेतैक या नाडीकन्दाणु (neurons) रहते हैं और दूसरे वे जिनमें अन्तरालित ऊति (interstitial tissue) मिलती है।
चेतक-एक चेतैक में एक चेताकोशा (nerve cell) और उससे उत्पन्न कई प्रवर्ध (processes) होते हैं। इन प्रवर्षों में से एक अक्षतन्तु या चेतालांगूल (nerve axon) होता है जिसे वातनाडी तन्तु का अक्ष-रम्भ (axis cylinder) भी कहते हैं तथा शेष प्रवर्ध ऊतन्तु या चेतालोम (dendrites) कहलाते हैं इन प्रवर्षों में से प्रत्येक वातनाडी (चेता) कोशा के एक कोण में से निकलती है क्योंकि अनेक प्रवर्ध होते हैं अतः चेता कोशा में भी अनेकों कोण देखे जाते हैं यद्यपि अभिरञ्जित छेद में २ या ३ कोण ही मिलते हैं उसका कारण कोशा के एक ही पृष्ठ ( plane ) का वहाँ पर दिखाई देना है यदि दूसरे पृष्ठ से छेद लिया जाता तो अन्य कोण प्रगट होते । अक्ष-रम्भ अपने मार्ग में केन्द्रिय वातनाडीसंस्थान ( central nervous system ) के अन्दर विमजिकंचुक ( medullary sheath or myelin sheath) से ढंका रहता है तथा मस्तिष्क ( brain ) और सुषुम्ना ( spinal cord ) के बाहर इस पर चेतावरण ( neuri. lemma or nucleated sheath of Schwaan) चढ़ा होता है। एक वातनाडी (या चेता) कोशा की रचना अत्यधिक जटिल होती है । उसके कोशारस (cytoplasm) में एक विशेष प्रकार की कणिकाएँ (granules ) होती हैं जिन्हें प्रोदलेन्यनील ( methylene blue ) द्वारा अभिरञ्जित किया जा सकता है और उन्हें प्रोदकणिका (Nissl granules) कहते हैं। प्रोदकणिकाएँ चेतालोमों तक जाती हैं परन्तु अक्ष-रम्भ में नहीं देखी जाती हैं।
चेतैक के विभिन्न भागों पर विहासात्मक परिवर्तनों का जो प्रभाव पड़ता है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जब चेतैक के किसी भाग पर आघात होता है तो उसके शेष भाग पर निरन्तर और निश्चित परिवर्तन देखे जाते हैं। इस विधि के द्वारा प्राणियों में तथा मनुष्यों में भी आघातप्राप्त चेताकोशा से निकले किसी चेतातन्तु ( nerve fibre ) का मार्ग ढूंढा जा सकता है और यह भी ज्ञात हो सकता है कि आघातप्राप्त चेतातन्तु किस चेताकोशा से उत्पन्न होता है। जब कोई चेतातन्तु अपने उत्पादक चेताकोशा से पृथक कर दिया जाता है या चेताकोशा को ही नष्ट कर दिया जाता है तो उस चेतातन्तु में एक विशिष्ट प्रकार का विहास हो जाता है जिसे सन् १८५० ई० में वालर ने बतलाया था और जो वालरीय विह्रास (Wallerian degeneration) के नाम से प्रसिद्ध है। इस विहास में तन्तु के दूरस्थभाग के तीनों अवयवों (अक्ष-रम्भ, विमजिचञ्चुक तथा कञ्चकन्यष्टियों) पर प्रभाव पड़ता है अर्थात् अक्षरम्भ जो कि संवाहि साधित्र ( conductiong apparatus) का आवश्यक अंग है
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