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५ - उरोयुक्ती बहुश्लेष्मा नीलः पीतः सलोहितः । सततं व्यवते यस्य दूरात्तं परिवर्जयेत् ॥ छाती से नीले पीले वर्ण का बहुत सा कफ रक्त के साथ निरन्तर निकालने वाले को दूर से छोड़ दें।
६ – ज्वरातिसारी शोफ्तन्ते श्वयथुर्वातयोः क्षये । दुर्बलस्य विशेषेण नरश्चान्ताय जायते ॥ - विशेष रूप से दुर्बल हुए को शोथ के बाद ज्वरातिसार हो जाय या ज्वर और अतीसार के बाद शोध हो जाय तो उसका अन्त जानना चाहिए ।
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७ - हनुमन्याग्रहस्तृष्णा बलहासोऽतिमात्रया । प्राणाश्चोरसि वर्तन्ते यस्य तं परिवर्जयेत् ॥ जिसका जबड़ा जकड़ गया हो और मन्या का भी ग्रह हो गया हो प्यास हो, बल का अत्यधिक ह्रास हो गया हो और जिसके प्राण केवल छाती में ही रह गये हों उसे छोड़ दे । ८ - कामलाऽचणोर्मुखं पूर्ण शङ्खयोर्मुक्तमांसता । संन्यासश्वोष्णगात्रं च यस्य तं परिवर्जयेत् ॥ आंख और मुख पीले पड़ गये हों, मुख भरा हुआ हो, दोनों शंख प्रदेशों से मांस नष्ट हो गया हो, त्रास बढ़ रहा हो और शरीर गरम रहता हो तो उसे छोड़ दे ।
९ - उपरुद्धस्य रोगेण कर्षितस्याल्पमक्षतः । बहुमूत्रपुरीषं स्याद्यस्य तं परिवर्जयेत् ॥ रोग ने जिसे कृश कर दिया हो थोड़ा भोजन करता हो तथा अधिक मूत्र और मल का त्याग करता हो उसे छोड़ दे ।
१० - दुर्बलो बहुभुङ्क्ते यः प्राग्भुक्तादन्नमातुरः । अल्पमूत्रपुरीषश्च यथा प्रेतस्तथैव सः ॥ जो रोगी अपनी स्वस्थावस्था से कहीं अधिक खाकर थोड़ा मल-मूत्र त्याग करता है तो उसे प्रेत जैसा मानना चाहिए ।
११ – वर्धिष्णुगुणसम्पन्नमन्नमश्नाति यो नरः । शश्वच्च बलवर्णाभ्यां हीयते न स जीवति ॥ जो निरन्तर बलवर्द्धक पदार्थ खाता है फिर भी उसका बल और वर्ण बराबर घटता जाता है वह रोगी जिन्दा नहीं रहता ।
१२- प्रकूजति पश्वसिति शिथिलं चातिसार्यते । बलहीनः पिपासार्तः शुष्कास्यो न स जीवति ॥
गले से कूजता है, श्वास तेजी से चलती है, शिथिल है, टट्टी बार-बार करता है, बलरहित, प्यासा और मुख जिसका बार-बार सूखता है वह जीवित नहीं रहता है ।
१३ – ह्रस्वं चयःप्रश्वसिति व्याविद्धं स्पन्दते च यः
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जिसका प्रश्वास छोटा हो गया है मानो किसी ने
मृतमेव तमात्रेयो व्याचचक्षे पुनर्वसुः ॥ काट लिया हो ऐसे स्पन्दन करता है उसे
मृत ही मानना चाहिए ।
१४ - ऊर्ध्वं च यः प्रश्वसिति श्लेष्मणा चाभिभूयते । हीनवर्णबलाहारो यो नरोन स जीवति ॥ कफ से जिसका कण्ठ घिर गया हो ऊर्ध्व श्वास लेता हो और वर्ण तथा बल जिसका नष्ट हो गया हो वह नहीं जीता ।
१५ - न बिभर्ति शिरो ग्रीवा न पृष्ठ भारमात्मनः । न हनू पिण्डमास्यस्थमातुरस्य मुमूर्षतः ॥
मुमूर्षु की ग्रीवा सिर का बोझ नहीं सम्हालती, पीठ अपने भार को नहीं सम्हालती, मुख में to गये पदार्थ को वह निगलने में असमर्थ रहता है ।
१६- सफेनं रुधिरं यस्य मुहुरास्यात्प्रमुच्यते । शूलैश्व तुद्यते कुक्षिः प्रत्याख्येयः स तादृशः ॥
मुख से जो बार-बार फेनयुक्त रुधिर निकालता है, कुक्षि में शूल उत्पन्न हो जाता है उसे प्रत्याख्येय समझना चाहिए ।
१७ – हृदयं च गुदं चोभे गृहीत्वा मारुतो बली । दुर्बलस्य विशेषेण सद्यो मुष्णाति जीवितम् ॥ हृदय और गुद या दोनों को ग्रहण करके बलवान् वायु विशेषकरके दुर्बल को शीघ्र मार डालता है ।
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