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व्यक्ति के शरीर में विविध सामुद्रिक शास्त्र सम्बन्धी या शरीर रोग विकृति जनक चिन्ह बन जाते हैं या दोषादि के द्वारा विकृति से होने वाली ही विकृति अकस्मात् आ जाती है इसे मुमूर्षु विज्ञान कहा जा सकता है । कविराज गङ्गाधर ने इसी को निम्न शब्दों में व्यक्त कर दिया है - निमित्तार्थं कारिणो निमित्तानां लक्षणानां लक्ष्याणाञ्च येऽर्था विकृतयस्तान् अर्थान् कर्तुं शीलं यस्याः सा निमित्तार्थकारिणी | उदाहरणेन तां दर्शयति यामित्यादि । या विकृतिम् अनिमित्तां निमित्तं विना रेखादि चिह्नं व्याध्यादिकं कारणं विना प्राक्तन कर्मतो यदृच्छया वा जातामायुषः प्रमाण ज्ञानस्य निमित्तमिच्छन्ति भिषजः सा निमित्तार्थकारिणी निमित्तानुरूपोच्यते ।
लक्षणनिमित्ता विकृति पर अपना कोई अधिकार नहीं । लक्ष्यनिमित्ता विकृति ही वास्तव में पैथालोजी शब्द का पर्याय माना जाना चाहिए । निमित्तानुरूपा प्रकृति में प्राचीन तत्वज्ञों ने रोगियों की मरणासन्नावस्था के स्पष्ट चित्र अङ्कित कर दिये हैं । इनका विशद वर्णन चरक संहिता के इन्द्रियस्थान में है । ये वर्णन कितने गम्भीर अध्ययन और अनेकानेक प्रयोगों के उपरान्त निश्चित किए गये होंगे इसका विचारमात्र सम्पूर्ण शरीर को रोमाञ्चित कर देता है । इसमें चिकित्सा शास्त्र का मानो वह निचोड़ दे दिया गया है जिसको हृदयङ्गम करके वैद्य अपकीर्ति से अपनी रक्षा कर सकता है। गतायु रोगी के परिवार वाले अकारण होने वाली अर्थहानि से बच सकते हैं तथा आधुनिक शोधकों के लिए एक चेलैअ है कि इन-इन लक्षणों के होने पर व्यक्ति को गतायुष मानना चाहिए ऐसा जो आयुर्वेदज्ञ कहता है उसमें अपने आधुनिक चमत्कारों ने इतनों को जीत लिया तथा निमित्तानुरूपा प्रकृति का इतना क्षेत्र सीमित कर दिया गया । यह चेलैअ चरक के काल से आज तक यथावत् अनुसन्धानकर्त्ताओं के सामने है । मैं इस विषय को और अधिक स्पष्ट करने के अभिप्राय से निमित्तानुरूपा विकृति के आवश्यक उदाहरण विविध आयुर्वेदीय ग्रन्थों से अविकल उद्धृत करता हूँ । प्रत्येक निश्चित रूप से विकार की उस चरमावस्था की ओर लक्ष्य करता है जिसे आयुर्वेद असाध्य मानता है और स्पष्ट शब्दों में घोषणा करता है कि
न स्वरिष्टस्य जातस्य नाशोऽस्ति मरणाद्यते । मरणञ्चापि तन्नास्ति यन्नारिष्ट पुरःसरम् ॥
एक बार अरिष्ट उत्पन्न हो जाने पर उसका नाश विना मरण के नहीं होता । तथा उसका भी मरण सम्भव नहीं है अर्थात् उसे बचाया जा सकता है जिसे अरिष्ट लक्षण पहले उत्पन्न नहीं हो गया है । अब हम निमित्तानुरूपा विकृति के कुछ उदाहरण वा अरिष्ट लक्षणों का उल्लेख करते हैं
( चरकोक्त )
१ – हिक्का गम्भीरजा यस्य शोणितं चातिसार्यते । न तस्मै भेषजं दद्यात्स्मरन्नात्रेयशासनम् ॥ गम्भीर हिचकियों के साथ अत्यधिक रक्तातीसार मारक होता है ।
२ - ज्वरो यस्यापराद्धे तु श्लेष्मकासश्च दारुणः । बलमांसविहीनस्य यथा प्रेतस्तथैव सः ॥ सायङ्काल में ज्वर के साथ दारुण श्लैष्मिक कास से पीडित बल-मांस रहित प्राणी प्रेत जैसा मानना चाहिए ।
३ - श्वयथुर्यस्य पादस्थस्तथा स्रस्ते च पिण्डिके । सीदतश्चाप्युभे जङ्के तं भिषक्परिवर्जयेत् ॥ पैरों पर सूजन, पिण्डलियां शिथिल दोनों जङ्घाएं अवसादित होने पर उसे भिषक् छोड़ दें । ४ - शूनहस्तं शूनपादं शूनगुह्योदरं नरम् । हीनवर्णबलाहारमौषधैर्नोपपादयेत् ॥ हाथ, पैर, गुह्यांग और उदर जिसका सूजा हुआ हो; वर्ण, बल और भोजन की मात्रा जिसका बहुत घट गई हो उसे ओषधि न दे ।
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