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जावालो जाजलिः पैलः करथोऽगस्त्य एव च । एते वेदाङ्गवेदज्ञाः षोडश व्याधिनाशकाः॥ चिकित्सातत्वविज्ञानं नाम तन्त्रं मनोहरम् । धन्वन्तरिश्च भगवान् चकार प्रथमे सति ॥ चिकित्सादर्पणं नाम दिवोदासश्चकारसः । चिकित्साकौमुदी दिव्यां काशीराजश्वकार सः॥ चिकित्सासारतन्त्रञ्च भ्रमनं चाश्विनीसुतौ। तन्त्रं वैद्यकसर्वस्वं नकुलश्च चकार सः ।। चकार सहदेवश्च व्याधिसिन्धुविमर्दनम् । ज्ञानार्णवं महातन्त्रं यमराजश्वकार ह॥ च्यवनो जीवदानं च चकार भगवानृषिः। चकार जनको योगी वैद्यसन्देहभञ्जनम् ॥ सर्वसारं चन्द्रसुतो जावालस्तन्त्रसारकम् । वेदाङ्गसारं तन्त्रञ्च चकार जाजलिमुनिः॥ पैलो निदानं करथस्तन्त्रं सर्वधरं परम् । द्वैधनिर्णयतन्त्रञ्च चकार कुम्भसम्भवः॥ चिकित्साशास्त्रवीजानितन्त्राण्येतानि षोडशः। व्याधिप्रणाशवीजानि बलाधानकराणि च ॥ मथित्वा ज्ञानमन्त्रेणैर्वायुर्वेद पयोनिधिम् । ततस्तस्मादुदाज नवनीतानि कोविदाः ।।
कितना हृदयावर्जक है यह कथानक ! ये भास्करपंथी वेदाङ्गवेदश सोलहों कथाकार आयुर्वेद के विविध ग्रन्थों का प्रणयन कर काल के कराल गाल में समाजाने पर भी अमर हो गये। भास्करसंहिता, चिकित्सातत्वविज्ञान, चिकित्सादर्पण, चिकित्साकौमुदी, चिकित्सासारतन्त्र, वैद्यकसर्वस्व, व्याधिसिन्धुविमर्दन सब लुप्त हो गये। यमराज द्वारा लिखित ज्ञानार्णव लुप्त हो गया। च्यवन का जीवदान, योगिराज जनक का वैद्यसन्देहभान नामक ग्रन्थ, जाबालिका सर्वसार, जाजलि का वेदाङ्गसार सभी खो गये। पैल ऋषि गये उनका निदान भी चला गया। करथ का सर्वधर किस धरा पर धरा है कौन कहेगा ! घड़े से उत्पन्न होकर आधुनिक जगत् के वैज्ञानिकों को महान् आश्चर्य में डालने वाले अगस्त्य महर्षि का द्वैधनिर्णयतन्त्र समाप्त हो गया। ये चिकित्सा शास्त्र के बीज, रोग नाश के मूल तत्व, बलाधान कारक दिव्यसन्देशवाहक ग्रन्थ रत्न ज्ञान विज्ञान के मन्त्रों के द्वारा आयुर्वेद सागर को मथकर जो नवनीत के समान शास्त्र कोविदों ने निकाले सब आज अदृश्य होने पर भी शाश्वतोऽयमायुर्वेदः का रव गूंज रहा है जो यह बतलाता है कि आयुर्वेद न ग्रन्थ परक है न व्यक्ति परक । ग्रन्थों का निर्माण एक के बाद दूसरा होता जावेगा। वैज्ञानिक एक के बाद दूसरा आता जावेगा। वह अपने युग की पुकार सुनेगा अपने अतीत से शक्ति और साधन प्राप्त कर नये भवन का निर्माण करेगा और अवश्य करेगा। अभिनव विकृति विज्ञान उसी विचार धारा से पुष्ट युगानुरूप कृति है। __ आयुर्वेद यह मानता है कि शरीर व्याधि का मन्दिर है। इसको विविध हेतु शारीरिक मानसिक, दैविक, भौतिक कष्ट देते हैं । कष्ट से मानव दुःखानुभव करता है। इस दुःखानुभूति का कारण है अधर्म
प्रागपि चाधर्मादृते नाशुभोत्पत्तिरन्यतोऽभूत् । प्राचीनकाल में भी अधर्म के बिना रोग नहीं उत्पन्न हुए । रोगोत्पत्ति के सम्बन्ध में एक बड़ी मनोहारिणी कथा चरकसंहिता में इस प्रकार प्रकट हुई है
आदिकाले ह्यदितिसुतमौजसोऽतिबलविपुलप्रभावाः प्रत्यक्षदेवदेवर्षिधर्मयज्ञविधिविधानाः शैलसारसंहतस्थिरशरीराः प्रसन्नवर्णेन्द्रियाः पवनसमबलजवपराक्रमाः चारुस्फिचोऽभिरूपप्रमाणाकृतिप्रसादोपचयवन्तः सत्यार्जवानृशंस्यदानयमनियमतपउपवासब्रह्म चर्यव्रतपरा व्यपगतभयरागद्वेषमोहलोभशोकक्रोधमानरोगनिद्रातन्द्राश्रमलमालस्यपरिग्रहाश्च पुरुषाः बभूवुः अमितायुषः तेषामुदारसत्वगुणकर्मणां धर्माणामचिन्त्यावात् रसवीर्यविपाकप्रभावगुणसमुदितानि प्रादुर्बभूवुः शस्यानि सर्वगुणसमुदितत्वात् पृथिव्यादीनां कृतं युगस्यादौ।
इस परम रमणीय आदर्श जीवन की कल्पना का चमत्कार प्रकट करके फिर उन्होंने विकारों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है
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