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[ २ ] कि इस शास्त्र के द्वारा स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य का संरक्षण और रोगी के विकार का शमन करना ही अभीष्ट है । इसी कारण आ द स्वास्थ्यवर्द्धक भी है तथा रोगसंहारक भी।
कितने खुले अन्तःकरण से, कितने पक्षाभिनिवेश से मुक्त वातावरण में, इस आयुर्विद्या का प्रणयन किया गया था इसकी जब गाथा पढ़ने को मिलती है तो हृदय उल्लास से परिपूर्ण हो जाता है और आनन्द की परमोच्च अनुभूति अनायास ही प्राप्त हो जाती है। अत्यन्त प्राचीनकाल में भगवान् धन्वन्तरि के श्रीमुख से प्रकट हुए ये वाक्य किस महानुभाव को न हिला देंगे
अहं हि धन्वन्तरिरादिदेवो जरारुजामृत्युहरोऽमराणाम् ।
शल्याङ्गमङ्गैरपरैरुपेतं प्राप्तोऽस्मि गां भूय इहोपदेष्टुम् ॥ 'मैं आदिदेव धन्वन्तरि हूँ जो देवताओं की वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु का हरण करने वाला हूँ। मैं अन्य सातों अंगों के साथ विशेषरूप से 'शल्याङ्ग ( Surgery ) का उपदेश करने के लिए इस पृथ्वी पर प्राप्त हुआ हूँ।' ___ आदि सर्जन की यह वाणी है। यह पृथ्वी मर के देवताओं की जरा, रुजा और मृत्यु के नाश के लिए तत्ववेत्ता की पुकार है। इसमें भूमि, देश, राज्य, प्रान्त, भाषा, वेश, वर्ण किसी के लिए रोक थाम नहीं है। सभी को अधिकार है कि भगवान् धन्वन्तरि प्रदत्त ज्ञान से लाभन्वित हो कर इस कोल्ड और हौट वार से त्रस्त एटम और हाइड्रोजन बम से ग्रसित पृथ्वी माता के सत्पुत्र बन कर यौवन का, नीरोग काया का तथा अमरत्व का सुखोपभोग कर दीर्घ जीवन के चरम लक्ष्य कैवल्य की प्राप्ति करें।
यह आयुर्वेद शाश्वत है-सोऽयमादुर्वेदः शाश्वतो निर्दिश्यते यह स्वयं आयुर्वेद के परम तत्त्व के प्रकाशक महर्षियों ने स्वीकार किया है। यह युग-युग में युगानुरूप फलता फूलता है । इसकी शाखा प्रशाखाएँ फैलती हैं। अनेक प्रयोग चलते रहते हैं। प्रभु द्वारा प्रदत्त विविध जड़ी बूटियों का अध्ययन कर एकसे एक नये चमत्कार का ज्ञान वैज्ञानिक या वैद्य करता है तथा उस अनुभव से समाज को लाभान्वित करता है। जीवित और मृत प्राणियों के शारीरिक अवयवों का, उनकी क्रियाओं का, उनकी विकृतियों का ज्ञान प्रत्येक युग में प्राणी ने किया है और उस ज्ञान को ग्रन्थ रत्नों में संजोकर रक्खा है ताकि आगे का युग विगत युग के अनुभवों के आधार पर नवीन युग के उदय होने पर उठने वाली समस्याओं का विचार करके नये शास्त्र की रचना कर सके । किसी एक ग्रन्थ को आयुर्वेद शब्द की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। कोई एक वर्गविशेष इस शब्द के द्वारा संकुचित वातावरण उत्पन्न नहीं कर सकता। संसार भर में जरा और मृत्यु तथा रोगों के विनाश के लिए चल रहे सारे प्रयत्न तथा मानवीय स्वास्थ्य के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए उपस्थित किए गये सारे उपाय आयुर्वेद की अमूल्य निवि हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कितने चित्ताकर्षक शब्दों में महर्षि द्वैपायन व्यास ने अनेक प्राचीन आयुर्वेदीय वैज्ञानिकों और उनके द्वारा प्रणीत ग्रन्थों एवं शास्त्रों की चर्चा की है
वन्दे तं सर्वतत्त्वज्ञं सर्वकारणकारणम् । वेदवेदाङ्गबीजस्य बीजं श्रीकृष्णमीश्वरम् ॥
स ईशश्चतुरो वेदान् ससृजे मङ्गलालयान् । सर्वमङ्गलमङ्गल्यवीजरूपः सनातनः ॥ ऋग्यजुर्सामाथाख्यान् दृष्ट्वा वेदान् प्रजापतिः। विचिन्त्यतेषामर्थञ्चैवायुर्वेदं चकार सः॥ कृत्वा तु पञ्चमं वेदं भास्कराय ददो विभुः । स्वतन्त्रसंहितां तस्माद्भास्करश्च चकार सः॥ भास्करश्च स्वशिष्येभ्य आयुर्वेदं स्वसंहिताम् । प्रददौ पाठयामास ते चक्रुः संहितास्ततः॥ तेषां नामानि विदुषांतन्त्राणि तस्कृतानि च। व्याधि प्रणाशवीजानिसाध्विमत्तो निशामय॥ धन्वन्तरिदिवोदासः काशीराजोऽश्विनीसुतौ । नकुलः सहदेवोऽश्च्यिवनो जनको बुधः ।।
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