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विकृतिविज्ञान
घटती जाती है, रक्त में तिक्ती-अम्लों की वृद्धि होती जाती है, रक्तस्थ शर्करा की राशि घट जाती है जिसके कारण उपमधुरक्तताजन्य आक्षेप ( hypoglycaemic convulsions ) होने लगते हैं । ज्वर, वमन तथा प्रलाप रोग के प्रारम्भ से ही मिलते हैं इन सब के कारण साध्यासाध्यता की दृष्टि से रोग घातकस्वरूप का होता है परन्तु बहुत से रोगी बचते हुए भी देखे गये हैं । यह रोग किसी भी अवस्था और लिंग के प्राणी में हो सकता है परन्तु अन्तर्वत्नियों में यह अधिकतर देखा गया है । इस रोग के अनेक कारण हैं । स्त्रियों में सगर्भावस्था में विषाक्त रक्त होना जिनमें एक है । फिरंग के रोगी को केन्द्रिय सोमल के प्रयोग से भी यह हो सकता है | दुग्धस्थल अधिक व्यापक होने पर वहाँ शल्किक अम्ल ( दैनिक एसिड ) का अधिक लेप कर देने के परिणाम स्वरूप भी यह रोग हो सकता है । इसी कारण दुग्ध के रुग्णों में अब टैनिक एसिड जैली के लेप का प्रचार कम हो रहा है, जो लोग हवाई जहाजों के लिए कपड़े के सूत को त्रिभूय विरालेन्य ( trinitro toluene ), कट्विकाम्ल ( picric acid) चतुर्नीरदक्षीण्य ( tetrachlorethane ) आदि विष में रंगते हैं उन्हें भी इस रोग का शिकार होता हुआ देखा गया है। पीतज्वर (yellow fever ) में उपसर्गजन्य कारणों से भी यह अपोषक्षय मिलता है ।
यद्यपि इस रोग का तीव्र और स्फूर्त ( fulminant ) प्रकार उतना नहीं देखने को मिलता जितना कि अनुतीघ्र प्रकार, फिर भी जब वह प्रकट होता है तो यकृत् छोटा पड़ जाता है और सिकुड़ जाता है उसका प्रावर वलियुक्त ( wrinkled ) हो जाता है । जहाँ पर ऊति की मृत्यु हो जाती है वे क्षेत्र आपीत सिध्म ( yellowish patches ) से युक्त हो जाते हैं । यकृत् के दोनों खण्डों में ऐसे क्षेत्र पाये जाते हैं इन प्रभावित क्षेत्रों के बीच-बीच में कोशाओं पर आघात बहुत कम हुआ मिलता है परन्तु वहाँ की ऊति अधिरक्तता के कारण लाल हो जाती है । एक सप्ताह के भीतर ही मृत ऊति सकण मल ( granular debris ) का रूप धारण कर लेती है। और पूर्णतः वियोजित हो जाती है और कुछ समय में हटा दी जाती है । ऊति के इस प्रकार हट जाने के ही कारण यकृत् का आकार छोटा पड़ जाता है इसी कारण यकृत् के प्रकृत भार १५०० माषे से वह ८०० माषे का ही रह जाता है । इस अवस्था में यकृत् का पीला रंग उड़ जाता है और वह गाढ लाल ( deep red ) हो जाता है क्योंकि उसके केशाल अधिक विस्फारित हो जाते हैं । इस अवस्था में मूत्र में विश्विती तथा दधिकी मिलने लगती हैं । जो कदाचित् स्वपाचित यकृत् ऊति के द्वारा बनती हैं पर कुछ उनकी उपस्थिति को यकृत् द्वारा तिक्ती-अम्लों के निस्तिक्कीयन ( deami - (nation) करने की क्रिया की असफलता बतलाते हैं । कुछ भी हो साध्यासाध्यता की दृष्टि से यह रोग असाध्य एवं मारक माना जाता है ।
जब रोगोत्पादक विष की शीघ्रमारक मात्रा रक्त में उपस्थित नहीं रहती तब अनुतीव्र प्रकार की प्रसरकोशामृत्यु ( subacute necrosis ) होती है । प्रारम्भ में इसका स्वरूप प्रसेकी कामला ( catarrhal jaundice ) के आक्रमणों से मिलता
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