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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
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केन्द्रिय कोशामृत्यु ( central necrosis ) – यह गम्भीरस्वरूप के मालागोलाणुज उपसर्ग के कारण या नीरवम्रलविषता ( क्लोरोफार्म पोइजनिंग ) के कारण होती है। इसमें उन कोशाओं की सर्वप्रथम मृत्यु होती है जो केन्द्रिय सिरा ( central vein ) के अधिक समीप होते हैं । उपशम यदि हुआ तो इन मृत्यु प्राप्त क्षेत्रों में सितकोशाओं की भरमार हो जाती है जो मृतकोशाओं को हटाकर स्वल्प
तूरकर्ष कर देते हैं । कभी कभी यकृत् के प्रकृत कोशाओं का भी पुनर्जन्म हो जाता है । केन्द्रिय कोशामृत्यु- प्रदेश के परिणाह पर स्नैहिक विहास का भी एक प्रदेश प्रकट हो जाता है । कृत् की जीर्ण निश्चेष्ट अधिरक्तता ( chronic passive congestion of the liver ) के कारण भी केन्द्रिय यकृत्कोशामृत्यु देखी जा सकती है । उसका अंशतः कारण सिरारक्त की स्थिरता के कारण उत्पन्न अजारकरक्तता (anoxaemia ) है तथा अंशतः चयापचयितों (metabolites ) के द्वारा उत्पन्न विषता है क्योंकि ये चयापचयित रक्त के प्रवाह की कमी या स्थिरता के कारण यकृत्कोशाओं से शीघ्र ही नहीं हट पाते। इस अवस्था में भी परिणाह पर स्नैहिक विहास मिलता है । क्योंकि रक्तप्रवाह की कमी के कारण दुष्पोषण malnutrition ) चलता रहता है इस कारण यकृत् के नवीन कोशाओं का अच्छी मात्रा में पुनर्जन्म होना सम्भव नहीं हो पाता उसके स्थान पर कुछ तन्तूत्कर्ष होता है । इस अवस्था को हृज्जन्य याल्युत्कर्ष ( cardiac cirrhosis ) कहते हैं ।
1.
मध्यप्रदेशीय कोशामृत्यु ( mid-zonal necrosis ) – यह बहुधा बहुत कम देखी जाती है । उदरच्छद कलापाक या अन्य औपसर्गिक व्याधियों के कारण यह हो सकती है।
परिणाहप्रदेशीय कोशामृत्यु ( peripheral necrosis ) - इस कोशामृयु का एक स्पष्ट कारण भास्वरविषता ( फास्फोरस विषता ) में देखा जाता है जहाँ साथ में स्नैहिकविहास मिलता है । ऊति का व्यापक विनाश होने के कारण इस रोग में यकृत् की आकृति छोटी पड़ जाती है उसका प्रावर ( capsule ) ढीला पड़ जाता है और उस पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं । गाढता ( consistency ) की दृष्टि से वह अत्यधिक मृदु एवं भङ्गुर ( friable ) होता है । इसी प्रकार की यकृत् कोशामृत्यु योषा क्षेपक ( eclampsia ) में मिलती है । परन्तु उसमें कोशामृत्यु क्षेत्र केवल परिणाह तक ही सीमित न रहकर अन्य खण्डिकाओं तक फैल जाते हैं।
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प्रसरकोशामृत्यु ( diffuse necrosis ) – इसे तीव्र पीत अपोषक्षय या तीव्रपीतापुष्टि ( acute yellow atrophy ) भी कहते हैं । जैसा कि इसका नाम है इसके विक्षत किसी एक खण्डिका तक सीमित नहीं रहते हैं यही नहीं वे यकृत् में भी सीमित नहीं रहते । जब यह व्याधि अत्युग्र स्वरूप की हो जाती है। तब तो यकृत् द्रव्य के बहुत बड़े भागों की मृत्यु हो जाती है जिसके साथ में कामला रहता है जो उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होता चला जाता है । रक्त एवं मूत्र की मिहराशि
११, १२ वि०
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