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विकृतिविज्ञान सूक्ष्म छिद्र हो जाता है जिससे अत्यल्प मात्रा में आन्त्रस्थ पदार्थ च्यवन करता है। मन्थरज्वरीय छिद्रण सम्पूर्ण उदरच्छदकलापाककारी होती है
उदरच्छदकला में व्रणशोथ का वही परिणाम होता है जो अन्य किसी भी लसिकाकला के पाक में देखा जाता है और जिसका वर्णन पहले कर दिया गया है। वैकारिक परिवर्तन भी कोई विशेष प्रकार के नहीं होते पर उनकी गम्भीरता रोगकारी जीवाणु की उग्रता या अनुग्रता पर निस्सन्देह निर्भर रहती है। उपसर्ग का प्रारम्भ एक स्थान विशेष से भी हो सकता है । जिस स्थान पर उपसर्ग लगता है वहाँ रक्ताधिक्य हो जाता है। उदरच्छदकला की चमक घटती जाती है और वहाँ तन्त्वि (fibrin) एकत्र होने लगती है जो उसे मन्द और रूक्ष बना देती है छोटे पीले रंग के तम्त्वि के फूल ( flakes ) आन्त्रकुण्डलियों के बीच बीच में मिलते हैं जो उन कुण्डलियों को एक दूसरे से संसक्त कर देते हैं। प्रारम्भ में वहाँ पर तरल उत्स्यन्द भी एकत्र हो जाता है जो सौम्य उपसर्गों में तरल ही रहता है परन्तु गम्भीर उपसर्गों में सपूय हो जाता है
बहुधा उदरच्छदीय उपसर्ग सफलतापूर्वक सीमित किए जाते हैं। जैसा कि उदर के दक्षिण अधोभाग में स्थित उण्डुकपुच्छीय विद्रधि के निर्माण से देखा जा सकता है। महाप्राचीरा पेशी के नीचे, यकृत् के ऊपर दक्षिणी भाग में तथा आमाशय, प्लीहा के ऊपर वामभाग में ये उपमहाप्राचीरिक विधियाँ उसी के उदाहरण हैं जिनका एक कारण आमाशय या ग्रहणी का छिद्रण है और दूसरा उण्डुकपुच्छ वृक्क या अन्य निचले भाग से ऊपर की ओर पूय का गमन है। यह भी स्मरणीय है कि फुफ्फुसच्छद गुहा में सिंचितपूय ( empyema) के द्वारा उपमहाप्राचीरिक विधि (subdiaphragmatic abscess ) की उत्पत्ति इसलिए असम्भव है क्योंकि लसवहाएँ सदैव नीचे से ऊपर की ओर गमन करती हैं। उपमहाप्राचीरिक विधि विदीर्ण होकर फुफ्फुसच्छद कला में प्रवेश कर सकती है।
सम्पूर्णाङ्गिक (generalised ) तीव्र उदरच्छदपाक अत्यधिक मृत्यु का कारण होता है। सीमित या सम्पूर्णाङ्गिक दोनों प्रकार के पाकों के कारण अत्यधिक भयकारी रोग संस्तम्भ आन्त्र ( paralytic ileus) उत्पन्न हो जाता है। भयङ्कर मालागोलाणुओं के कारण रोगाणुरक्तता ( septicaemia) होने का भय रहता है। आन्त्र के संस्तम्भन से उपसर्ग को सीमित करने में वपाजाल तथा उदरच्छद दोनों को ही कुछ लाभ हो जाता है परन्तु अधिक काल का संस्तम्भन अन्ततोगत्वा अधिक विनाशक सिद्ध होता है। यदि सीमित उदरच्छदपाक से सम्बद्ध आन्त्रपाश में पुनः हलचल प्रारम्भ न हो सकी तो प्राणनाश में कुछ भी सन्देह नहीं रहता। वास्तव में तीव्र सम्पूर्णाङ्गिक उदरच्छदकलापाक का परिणाम प्रायशः मृत्यु ही होता है यदि सौम्यरूप रहा तो रक्षा हो जाती है स्राव शोषित होकर तन्त्वि भी हट जाती है तथा संसक्तियां भी अधिक नहीं बनतीं पर कहीं कहीं संसक्तियां इतनी अधिक बन जाती हैं कि आन्त्र का बहुत भाग विकृतरूप हो जाता है और उसके अवरोध ( obstruction ) या पाशन ( strangulation ) का सदैव भय बना रहता है।
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