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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव ११७ शस्त्रकर्म करते समय जब तक छिद्रण के कारण आन्त्र के पदार्थ न आ गये हों इस स्राव को पोंछने की कोई आवश्यकता नहीं है । अब हम उदरच्छदकलापाक के विभिन्न पहलुओं का वर्णन यथा विधान करेंगे तीव्र उदरच्छकलापाक-यह स्थानिक तथा सम्पूर्णाङ्गिक दोनों प्रकार का देखा जाता है । इसके होने में ५ मुख्य कारण ग्रीन महोदय ने प्रकट किए हैं: १. उदर प्राचीर के निच्छिद्रणकारी ( perforating ) व्रणों के द्वारा, २. आघात या व्रणन के कारण आन्त्रस्थ पदार्थों के च्याव (leakage) के द्वारा। ३. आन्त्र के उपसर्ग के द्वारा, क्योंकि उपसर्ग ग्रस्त आन्त्र में होकर जितनी सरलता से रोगकारी जीवाणु उदरच्छदकला की ओर गमन करने में समर्थ होते हैं वैसी सरलता स्वस्थ आन्त्र में पाना असम्भव है । ४. रक्तधारा के द्वारा। ५. महिलाओं में प्रसवकालीन रोगाणुता ( puerperal sepsis), गर्भाशय का विदरण, गर्भाशयनाल का उष्णवातिक गोलाणुओं (gonococci ) द्वारा उपस्रष्ट होना, तथा साहसिक गर्भपात (criminal abortion ) के कारण भी तीव्रोदरच्छदकलापाक देखा जाता है जो रोगाणु तीव्र उदरच्छदकलापाक करने में समर्थ होते हैं उनमें आन्त्रदण्डाणु (जिसका पूय मलगन्धी होता है ) तथा शोणांशिक मालागोलाणु मुख्य हैं। आन्त्र रोगाणुओं में पुंजगोलाणु, श्वसन गोलाणु, गोलाणु, वातिजनप्रावर गदाणु (clostridium welchii) भी उ. क. पा. कर सकते हैं। उदरच्छदकला में उपसर्ग के प्रसार का एक मार्ग उसका तल है। उपसर्गकारी जीवाणु तल पर पहुँच जाता है तथा आन्त्र की गतियों के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक बढ़ जाता है । दूसरा मार्ग लसीका वाहिनियों का है तथा तीसरा मार्ग उपोदरच्छदकलीय संयोजी ऊत्यवकाशों ( subperitoneal connective tissue spaces ) का है। मालागोलाणु सदैव लसीका वाहिनियों द्वारा उपसर्ग का प्रसार करते हैं यही मार्ग उनके द्रुतवेग से उपसर्ग प्रसार का प्रधान साधन है। वे सर्वप्रथम उदरच्छदीय प्रोतिकोशापाक ( peritoneal cellulitis) करते हैं इसी कारण इन उपसर्गों में मृत्यु अधिक संख्यक देखी जाती हैं। आन्त्ररोगाणु उदरच्छद तल पर आरोहण करते हुए उपसर्ग का प्रसार करते हैं जिसे वपाजाल भी सीमित कर देता है और आन्त्र के पाश एक दूसरे से अभिलग्न होकर भी सीमित कर देते हैं इस प्रक्रिया से सम्पूर्ण उदरच्छद गुहा से सशोथ उपस्रष्ट भाग पृथक् कर दिया जाता है। केवल मन्थर ज्वर में होने वाले आशुकारी छिद्रण को छोड़ कर अन्य विधि से आन्त्र में शोथ या पाक होने पर उसके चारों ओर उदरच्छद की ऐसी सुरक्षात्मक संसक्ति बन जाती है कि आन्त्र में बड़ा छिद्र होकर बहुत सा पदार्थ उदरच्छद गुहा को भरने की अपेक्षा एक For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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