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सम्प्राप्तिविमर्श के ग्रहण से विधि का भी ग्रहण हो जाता है। उसका पृथक् पाठ करने की आवश्वकता नहीं, क्योंकि विधि का संख्या से नियमित सम्बन्ध है। विधिप्रयुक्त द्विविध, त्रिविध आदि शब्दों में नियमतः संख्या का ही प्रयोग होता है। इस प्रकार विधि संख्या से अतिरिक्त नहीं है अतः पृथक विवेचन भी अनावश्यक है। शास्त्र और लोक में क्वचित् विधि शब्द प्रयोग के अनेकों उदाहरण उपलब्ध होते हैं। इन दोनों के उचित अर्थ क्षेत्र की मर्यादा का ज्ञान करना भी परमावश्यक है। इसका ही निरूपण वाप्यचन्द्र जी के मतानुसार आगे 'विधिसंख्ययोश्चायं भेदः' इत्यादि के द्वारा किया गया है। विधि और संख्या में भेद केवल इतना है कि-विधि का अर्थ प्रकार है और उसका प्रयोग अवान्तर धर्म भेद के सम्बन्ध से एक ही जाति की दो या उससे अधिक व्यक्तियों में भेद प्रदर्शित करने के लिये किया जाता है। गथा-त्रिविधं रक्तपित्तम्-तिर्यगूर्वाधोगभेदात् । यहाँ पर ऊर्ध्वग और अधोग में रक्तपित्तत्त्व जाति समान रहने पर भी ऊर्ध्वग और अधोग स्वरूप धर्मभेद को मानकर रक्तपित्त में संख्या के साथ-साथ विधि शब्द का भी प्रयोग किया गया है। किन्तु संख्या का प्रयोग अवान्तर धर्म निरपेक्ष व्यक्ति भेद की गणना मात्र में होता है। अर्थात् अनेक वस्तुओं की गणना, विना किसी विशिष्ट अवान्तर धर्म का विचार के ही करना संख्या है। संख्या का प्रयोग सर्वत्र किया जा सकता है। 'यथा चत्वारो घटाः, अष्टो ज्वराः, पञ्च गुल्माः, सप्त कुष्ठानि' यहाँ पर घट तथा ज्वर आदि की सामान्य गणना के लिये संख्या का प्रयोग किया गया है। यहाँ यह अपेक्षा नहीं है कि घट किस-किस धातु के बने हैं एवं ज्वर किस धर्म विशेष से युक्त हैं, किन्तु परस्पर भिन्न अवश्य हैं, केवल इसी का निर्देश संख्या के द्वारा किया गया है।
प्रकृति में विधि शब्द का अर्थ प्रकार कहा गया है, और उसका प्रयोग भिन्न जाति के व्यक्तियों में नहीं किया जा सकता। यथा गोत्व गौ में ही रह सकता है अश्व में नहीं। अतः यह उचित है कि संख्या, विकल्प आदि के द्वारा भेद करने पर भी अवान्तरभेदक कारण के धर्म के अनुरूप प्रकार या विधि शब्द का प्रयोग किया जावे। तात्पर्य यह है कि संख्या आदि के द्वारा रोगों का भेद कर देने पर भी धर्मभेद के प्रतिपादनार्थ 'विधि' का कथन अवश्य करना चाहिए। __इस विषय में नैयायिकों का भी मत है कि जहां विभिन्न भेदों का निर्णय समान धर्म से किया जाता है वहां विधि शब्द का प्रयोग करना चाहिए। केवल भेद प्रदर्शित करने के लिए संख्या का प्रयोग करना उचित है। इसमें जाति की समानता या असमानता की अपेक्षा नहीं ह । वैयाकरणों का भी कहना है कि (6)समान जाति में ही अवान्तर धर्म के सम्बन्ध से भेद को प्रकार (विधि) एवं समान या असमान जाति में भेदमात्रसूचक संख्या का प्रयोग किया जाता है। यथा काली और श्वेत दो प्रकार की गाय हैंयहां पर भेद श्वेतत्व एवं कृष्णत्व के सम्बन्ध से समान जाति में ही किया गया है अतः प्रकार शब्द प्रयुक्त हुआ। इसी प्रकार चार पशु यह कहने से गाय, भैंस आदि सबका बोध हो सकता ह अतः यहां विजातीय होने के कारण भेद मात्र का ही ज्ञान होता है जिससे केवल संख्या का प्रयोग किया गया है।
विधि एवं संख्या का भेद निरूपण करते हुए श्री पण्डित गङ्गाधर कविराज जी का कथन है-'अत्र विधिस्तु प्रकारः, संख्या तु भेदमात्रम् , सजातीय-विजातीयेषु :पञ्च ब्राह्मणक्षत्रियाः। प्रकारस्तु सजातीयेषु मिन्नेषु धर्मान्तरेण उपपत्तिः'। इसका तात्पर्य यह है कि विशेषण या धर्म विशेष को मानकर भेद करने पर विधि शब्द का प्रयोग किया जाता है। 'निजागन्तुविभागेन तत्र रोगा द्विधा स्मृता' यहां पर रोग विशेष्य है एवं निज और आगन्तु
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