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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०५४ विकृतिविज्ञान विकल्प समवेत दोषों की अंशांशकल्पना को विकल्प कहते हैं। वात आदि के रूक्षता आदि गुणों को अंश कहते हैं। इस गुणसमूह के एक, दो, तीन या समस्त अंशों से वात आदि के प्रकोप का निश्चय करना ही अंशांशकल्पना है। अर्थात् कितने प्रकोपक गुणों से दोष का प्रकोप हुआ है इसका सूक्ष्म विवेचन करना ही विकल्प या अंशांशकल्पना कहलाता है। सुश्रुत ने भी कहा है कि-'रोच्य आदि सम्पूर्ण, तीन, दो या एक गुण से भी संसर्ग में कुपित दोष दूसरे कुपित दोष का अनुगमन करता है। इस प्रकार का दोषप्रकोप निदान की विचित्रता का ही फल है । द्रव्य और उनके रसों में दोषों के ही समान गुण रहते हैं। अतः प्रकोप रस या द्रव्य में दोषप्रकोप जितने अंश रहते हैं उनसे ही दोषों का प्रकोप होता है । यथा कषायरस तथा कलाय (मटरभेद खिसारी) रूक्षता आदि सब गुणों से युक्त होने के कारण रौप्य, शैत्य, लाघव, वैशद्य आदि गुणों से युक्त वात को सभी अंशों से बढ़ाता है। तण्डुलीयक (चौराई) रूक्षता, शीतता तथा लाघव इन तीन गुणों से बात का वर्धक है। काण्डेच रूक्षता और शीतता गुणों से ही वातको बढ़ाता है। सीधु (शराबभेद) केवल रूक्षता गुण से ही वात का वर्धक है। ___ कटु रस तथा मद्य में पित्तवर्धक सभी अंश विद्यमान हैं अतः वह पित्त का सर्वांशवर्धक है । हिंगु कटु, तीक्ष्ण एवं उष्ण इन तीनों गुणों से पित्त को बढ़ाता है अजवाइन तीक्ष्णता तथा उष्णता गुण से और तिल केवल उष्णता के कारण ही पित्त के वर्धक हैं। __ मधुर रस एवं भैंस का दूध श्लेष्मवर्धक सम्पूर्ण अंशों से कफ का वर्धन करते हैं । स्नेह, गौरव और माधुर्य से खिरनी कफ का प्रकोप कराती है। कशेरू शैत्य और गौरव के कारण तथा केवल शैत्य गुण के कारण क्षीरी वृक्षों के फल कफ के वर्धक होते हैं । गुणों के अन्य उदाहरण जेजट, गदाधर और वाप्यचन्द्र की टीकाओं में लिखित हैं उनका उल्लेख विस्तार भय से यहाँ नहीं किया जा रहा है। रात्रि के प्रथम भाग में कफ, मध्य में पित्त एवं अन्त में वात का प्रकोप होता है। इसी प्रकार दिन के तीन भाग और भोजन के आम, पच्यमान और पक्क अवस्था अथवा पाचन के आदि, मध्य और अन्त में क्रमशः कफ, पित्त और वायु की वृद्धि या प्रकोप होता है तथा वसन्त, शरद और वर्षा ऋतुओं में भी यही क्रम रहता है । ऋतु के कतिपय दिनों को ऋत्वंश कहते हैं। इसीलिये वाग्भट ने कहा है-पहली ऋतु के अन्तिम और दूसरी के प्रथम सप्ताह को ऋतु सन्धि कहते हैं। अथवा वर्षरूप काल का ऋतु भी एक अंश है, यह अर्थ भी उचित है। एक ही ऋतु के आदि, मध्य और अन्त की कल्पना करना अनुचित है; क्योंकि सम्पूर्ण ऋतु को ही दोष प्रकोप का कारण कहा गया है उसके अंश को नहीं। संख्या और विधि चरक ने 'सम्प्राप्तिातिरागतिरित्यनान्तरं व्याधेः, सा संख्याप्राधान्यविधिविकल्पबलकालविशेषभिद्यते' इस सम्प्राप्ति लक्षण तथा उसके भेदों के निरूपण में संख्या आदि के समान 'विधि' भेद का भी उल्लेख करते हुए 'विधिर्नाम--द्विविधा व्याधयो निजागन्तुभेदेन, त्रिविधा स्त्रिदोषभेदेन, चतुर्विधाः साध्यासाध्यमृदुदारुणभेदेन' सूत्र के द्वारा उसके पृथक उदाहरणों का भी स्पष्ट निरूपण किया है। किन्तु वाग्भट ने इस भेद की पूर्णतः उपेक्षा करके सन्देह उत्पन्न कर दिया है। विजयरक्षित 'उच्यते' आदि के द्वारा इसका उत्तर देते हैं-संख्या For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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