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अग्नि वैकारिकी
१००७ होती यह भी आवश्यक नहीं है । इसी कारण जातस्योत्तरकालज अर्श का भी वर्णन किया गया है।
सहज अर्शी के आकार की स्पष्ट कल्पना चरक ने निम्न शब्दों में की है:
तत्र सहजान्यासि कानिचिदणूनि कानिचिन्महान्ति कानिचिद्दी;णि कानिचिदध्रस्वानि, कानिचिवृत्तानि, कानिचिद्विषमविसृतानि, कानिचिदन्तःकुटिलानि, कानिचिबहिःकुटिलानि कानिचिज्जटिलानि, कानिचिदन्तर्मुखानि यथास्वं दोषानुबन्धवर्णानि ।
अणु, महान् , दीर्घ, हस्व, वृत्त, विषमविसृत, अन्तःकुटिल, बहि कुटिल, जटिल, अन्तर्मुख इन रूपों में सहजार्श मिलते हैं। तथा वर्ण का नानाविधत्व दोषानुबन्ध के कारण होता है।
सहजार्शी का सत्यचित्रण करने में चरक की लेखनी को जो सिद्धहस्तता प्राप्त हुई है वह अन्यत्र मिलती ही नहीं
तैरुपहतो जन्मप्रभृति भवत्यतिकृशो विवर्णः क्षामो दीनः प्रचुरविबद्धवातमूत्रपुरीषः शार्करी चाश्मरी वा तथाऽनियतविबद्धमुक्तपक्कामशुष्कभिन्नवर्चा अन्तरान्तरा श्वेतपाण्डुहरितपीतरक्तारुणतनुसान्द्रपिच्छिलकुणपगन्धामपुरीषोपकेशी नाभिवस्तिवंक्षणोद्देशे प्रचुरपरिकर्तिकान्वितः सगुदशूलप्रवाहिकापरिहर्षप्रमोहप्रसक्तविष्टम्भान्त्रकूजोदावर्तहृदयेन्द्रियोपलेपः प्रचुरविबद्धतिक्ताम्लोद्गारः सुदुर्बलो सुदुर्घलाग्निरपशुक्रः क्रोधनोदुःखोपचारशील: कासश्वासतमकतृष्णाहृल्लासच्छर्दिवरोचकाविपाकपीनसक्षवथुपरीतस्तैमिरिकः शिरःशूली क्षामभिन्नसन्नसक्तजर्जरस्वरः कर्णरोगी शूनपाणिपादबदनाक्षिकूटः सज्वरः साङ्गमर्दः सर्वपस्थिशूलीचान्तरान्तरा पार्श्वकुक्षिबस्तिहृदयपृष्ठत्रिकग्रहोपतप्तः प्रधानपरः परमालसश्चेति । (च. सं. चि. स्था. अ. १४) __जन्मप्रभृतस्य गुदजैरावृतो मार्गोपरोधाद्वायुरपानः प्रत्यारोहन्समानव्यानप्राणोदानान्पित्तश्लेष्मणौ च प्रकोपयति, ते प्रकुपिताः पञ्चवाताः पित्तश्लेष्माणौ चार्शसमभिद्रवन्त एतान् विकारानुपजनयन्तीत्युक्तानि सहजान्यीसि।
सहजार्श से पीडित व्यक्ति अपने जन्म काल से ही अत्यन्त कृश, विवर्ण, क्षाम, दीन, वात-मूत्र-पुरीष को अधिक मात्रा में और विबद्ध निकालता है, उसके मूत्र में शर्करा का होना अथवा मूत्र मार्ग में अश्मरियों की उपस्थिति पाई जा सकती है। अनियत, विबद्ध, मुक्त, पक्व, अपक्क, शुष्क या भिन्नस्वरूप का मल पाया जाता है। मल का स्वरूप श्वेत, पाण्ड, हरित, पीत, रक्त, अरुण में से कोई भी हो सकता है। वह मल तनु, सान्द्र, पिच्छिल आम अथवा कुणपगन्धी हो सकता है। नाभिबस्ति तथा वंक्षण प्रदेश में परिकर्तिका पाई जा सकती है। गुदशूल, प्रवाहिका, रोमहर्ष, मोह, निरन्तर विष्टम्भ ( habitual constipation) आन्त्रकूजन, उदावत, हृदयोपलेप, इन्द्रियोपलेप प्रचुर विबद्ध तिक्तोद्गार तथा अम्लोद्वार आते हैं। रोगी अत्यन्त दुर्बल होता है उसकी अग्नि मन्द होती है वह अल्पशुक्री होता है। क्रोधी तथा दुःख अधिक मानने वाला होता है, कास, तमक, श्वासतृष्णा, हृल्लास, वमन, अरुचि, अविपाक, पीनस, क्षवथु से युक्त, तिमिररोग, शिरःशूल से पीडित हो सकता है । उसका स्वर क्षीण, फटा हुआ, अवसादयुक्त, रुक रुककर होने वाला तथा जर्जर होता है । वह कर्णरोग से भी पीडित हो सकता है । उसके हाथ पैर मुख नेत्रकूट सूजे हुए पाये जा सकते हैं, वह सज्वर, साङ्गमर्द, सर्वपर्वास्थिशूलयुक्त, समय समय
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