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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभि वैकारिकी ६६५ जितना प्रभावित होता है उतना मलाशयादि निचले भाग नहीं । रक्तवाहिनियों को देखने से उनमें घनास्रोत्कर्ष तथा अतिपूर्णता ( engorgement ) पाई जाती है । व्रणों के बीच बीच की श्लेष्मलकला स्वस्थ होती है। जब व्रण का उपशम होता है तो स्लेटी रंग की चर्मपत्रीय व्रणवस्तु ( parchment soar ) बनती है । इस रोग के व्रण आकार में छोटे बड़े कई प्रकार के होते हैं वे मलाशय से गुदद्वार तक फैल सकते हैं । उनमें काले रंग के निर्मोक ( sloughs ) भरे रहते हैं इन्हें 'सीएनीमोन 'अल्सर्स' कहा जाता है । इस सबके कारण अन्त्र का परमचय तथा स्थौल्य देखा जा सकता है कहीं कहीं पर आन्त्रप्राचीर में गढ़े बन जाते हैं और कहीं व्रण वस्तु जन्य संकोचन ( cicatrical contractions ) भी मिल जाते हैं। गहरी रक्तवाहिनियों का घनात्रोत्कर्ष, घनात्र में अमीबा की उत्पत्ति, आन्त्रप्राचीर का कोथ तथा रक्तस्राव ये सभी पाये जा सकते हैं । व्रणों के फट जाने से उदरच्छदपाक या स्थानिक परिस्थूलान्त्र विद्रधि ( peri colic abscess ) भी बन सकते हैं । उण्डुकपुच्छ का अमीबा द्वारा फटना या छिद्रण भी पाया जा चुका है । यह द्वितीयक पूयिक उपसर्ग लग गया तो श्लेष्मलकला का कोथीय विनाश भी देखा जा सकता है । कर्कटार्बुद से मिलता जुलता अमीबिक कणार्बुद ( amoebic granulomata ) भी प्रायशः मिल जा सकते हैं ( मान्सन बहर ) । ऊपर जो लिखा गया है उसे देखने से ज्ञात होता है कि अमीबिक डिसेंट्री का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विक्षत स्थूलान्त्र के उपश्लेष्मल आवरण के भीतर एक व्रणशोथीय उत्स्यन्द ( iuflammatory exudation ) का होना है जो आगे चल कर श्लेष्मल कला को क्षतिग्रस्त कर देता है और व्रणन का कारण बनता है । इस वैकारिकीय स्वरूप की इतनी भिन्नताएँ देखने में आती हैं कि कभी कभी आन्त्रिक प्राचीर की कई इञ्च तक सम्पूर्ण परिधि व्रणीभूत हो जाती है जिससे उस के आवरण अत्यन्त स्थूल हो जाते हैं और तुरत मारक रूप से लेकर उण्डुक में लक्षणों से भी विरहित कुछ व्रण मात्र तक के रूप देखे जा सकते हैं । अतः पहले प्रारम्भिक विक्षतों की उत्पत्ति पर हम पुनः प्रकाश डाल कर कैसे उनका रूप उग्र हो जाता है उसे बतलावेंगे । अमीबा द्वारा निर्मित प्रथम विक्षत लाल बिन्दुओं या अधिरक्तता के क्षुद्र सिमों ( small petches of congestion ) के रूप में श्लेष्मल कला पर उदय होते हैं। जिसके साथ उपश्लेष्मल आवरण में स्वल्प स्थौल्य भी मिलता है । समीपस्थ भागों मेंद्र गोल उन्नत पीत क्षेत्र मिलते हैं जिन्हें तीव्र अधिरक्तता का एक गुलाबी वलय घेरे रहता है । ये सिध्म स्वस्थ श्लेष्मल कला से काफी उठे हुए होते हैं । यह आकृति उपश्लेष्मल आवरण में गहरे पीले ( tawny yellow) काचरीय ( gelatinous) पदार्थ की स्थानिक भरमार के परिणामस्वरूप आती है । इसके केन्द्र भाग की श्लेष्मल कला के अधिच्छदी भाग नष्ट हो चुके होते हैं जब कि उसके आसपास की श्लेष्मल कला सशोथ वलय का रूप धारण कर लेती है । एक दूसरी अवस्था अन्त्र के दूसरे भागों में मिलती है जब कि श्लेष्मलकला की अनुप्रस्थ वलियों ( transeversefolds For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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