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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६६४ विकृतिविज्ञान ग्रन्थीय रूप में अमीबा गोल, चक्राकार रोगी के मल के अन्दर मिलते हैं । इनका आकार ७ से ९ म्यू तक होता है । कोई कोई १५ से २० म्यू तक भी बड़े होते हैं । उसकी यष्टि एक से दो हो जाती है और दो से चार तक का रूप धारण कर लेती है । इस प्रकार चतुर्न्यष्टिक ग्रन्थि ( quadrinucleate oyot) बहुधा मिल जाती हैं । इन न्यष्टियों में वर्तनशील वर्णाभपिण्ड ( refractile chromatoid bodies) रहते हैं तथा ग्लाइकोजन का आयोडीन द्वारा अभिरञ्जित होने योग्य भाग रहता है । ग्रन्थिरूप अमीबा आँत में नहीं पकते बल्कि एक प्राणी को छोड़ जब वे दूसरे प्राणी में प्रवेश करते हैं तो वहाँ भी आमाशयिक रस का उन पर कोई असर नहीं होता पर जब वह अग्न्याशयरस के सम्पर्क में आते हैं तब वह खुल जाते हैं और चतुष्टियुक्त अमीबा की उत्पत्ति होती है । एक ग्रन्थि में १० दिन तक यह शक्ति रहती है । चार न्यष्टियों का जब द्विखण्डन होता है तो उससे ८ अमीबा तैयार हो जाते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमजग्रहणी या आमातिसार का वैकारिकीय ज्ञान एक बहुत बड़ा महत्त्व रखता है । आमकारी कामरूपी आन्त्र के सुषिरक में प्रायः पड़ा रहता है और आन्त्र की श्लेष्मकला के ऊपर वह पड़ा रहकर आन्त्रस्थ पदार्थ, जीवाणुओं, श्वेतसार ( स्टार्च) के कर्णो और मल को खाता रहता है । मानवीय आन्त्र में उनको पुष्टिकारक भोजन न मिलने से वह दुर्बल रहता है । जिन व्यक्तियों के मल से अमीबा की सिस्टें निकला करती हैं उनमें कई तो इसी प्रकार के निरापद ( harmless ) रूप वाले अमीबाओं से युक्त होते हैं । जब अन्त्र स्वस्थ होती है और बँधा हुआ मल विसर्जन किया जाता है तब अमीबिक उपसर्ग है इतना ही पता मलपरीक्षण द्वारा हो जा सकता है । पर जब मल ढीला उतरता है तो इनका आकार बढ़ जाता है और इनके उदर में ग्रसित दण्डाणुओं या शाकाणुओं का भी पता चल जाता है । आमकारी अमीबा जो सिस्टोत्पत्ति करता है बहुधा एक सहभोजी ( commensal ) के रूप में अपने मित्र मनुष्य के साथ निवास करता है । पर जब इस मित्र की अन्त्र की श्लेष्मलकला को कोई आघात पहुँच जाता है जो रोग जीवाणुओं द्वारा सदैव सम्भव है तो फिर मैत्री सम्बन्ध टूट जाता है और वह एक उग्ररूप धारण करके आन्त्रप्राचीर पर आक्रमण कर देता है । इस अवस्था में अमीबा श्लेष्मलकला से चिपक जाता है और एक प्रकार का कोशांशि पदार्थ ( cytolysin ) उत्पन्न करता है । यह कोशांशि आन्त्रकोशाओं को नष्ट करते हुए उपश्लेष्मलकला (submucosa ) तक अमीबा को पहुँचा देता है । इसके कारण स्थानिक ऊतिनाश होता है । विद्रधि की उत्पत्ति होती है और एक पलिघकृतिक ( flask-shaped ) व्रण बन जाता है । यहाँ पूर्वग्रंथीय रूप तैयार होते हैं उसके पश्चात् सिस्टें बनती हैं जो मल के साथ साथ निकला करती हैं । स्थूलान्त्र, उण्डुक, स्थूलान्त्र के यकृत् निकटस्थ भाग ( hepatic flexure ), मलाशय प्लीहनिकटस्थ भाग ( splenic flexure ) क्षुद्रान्त्र का निचला भाग बहुत कम प्रभावित हुआ करता है । स्थूलान्त्र का ऊर्ध्वाध For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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