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अनि वैकारिकी
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६६१ संक्षेप में कफज ग्रहणी में अधोलिखित लक्षण बतलाये हैं१. रोगी का मल फटा-फटा ( भिन्न) होता है। २. रोगी के मल मे आम मिली रहती है। ३. मल कफ से युक्त होता है। ४. मल भारी होता है । यह भारीपन उसमें जल मिला होने पर देखा जाता है। ५. मल देखने में चिकना और शंखवत् श्वेत हो जा सकता है।
६. रोगी अकृश होते हुए भी दौर्बल्य का अनुभव करता है अर्थात् कफज ग्रहणी से पीडित व्यक्ति मांसोपचित परिपुष्ट शरीरवाला होने पर भी उससे साधारण सा कार्य करना सम्भव नहीं होता । वह अत्यन्त दुर्बल अपने को मानने लगता है।
७. रोगी को शीत बहुत व्यापता है। ८. रोगी को पीनस, हृल्लास, वमन, श्वासोपद्रव, शोफ, कास, जड़ता रह सकती है। ९. उसका मुख मीठा और मीठी ही डकार आती रहती है।
१०. रोगी में आलस्य की मात्रा बहुत अधिक बढ़ जाती है, जिसे कुछ शास्त्रकार गुरुगात्रता के नाम से पुकारते हैं।
सान्निपातिक ग्रहणी सान्निपातिक ग्रहणी के सम्बन्ध में चरक ने निम्न सूत्र देकर अपना पिण्ड छुड़ा लिया है:
पृथग्वातादिनिर्दिष्टहेतुलिङ्गसमागमे । त्रिदोषं निर्दिशेदेवं तेषां वक्ष्वामि भेषजम् ॥
वातिक, पैत्तिक और श्लैष्मिक ग्रहणी के पृथक, पृथक् जो लक्षण बताये हैं और जो इन तीनों के हेतु कहे गये हैं उन्हीं का समागम (एक स्थल पर सञ्चय) ही सान्निपातिक ग्रहणी बनाता है। इसी को वाग्भट ने सर्वजे सर्वसङ्करः कहा है।
सर्वेषां लक्षणानां सङ्करो मिश्रत्वं यत्र वर्तते स सान्निपातिकं ग्रहणीगदम्भवति । इसी को हारीत ने बड़ी सुन्दरता से अङ्कित किया है
त्रिभिः समेतं गदितं च चिह्नमेतस्य कोपो मधुरास्यता वा ।
दाहोऽथ मूर्छा श्वसनं जडत्वं स सन्निपातग्रहणीगदः स्यात् ।। वसवराजीयकार ने त्रिदोषज के साथ द्वन्द्वज ग्रहणी भी स्वीकारी है
मिश्रिते द्वन्द्वजा ज्ञेया त्रिदोषे सर्वरूपिणी ।
संग्रहग्रहणी घटीयन्त्रग्रहणी या आमवातग्रहणी माधवकर तथा वसवराजीयकार ने एक संग्रहग्रहणी या घटीयन्त्रग्रहणी नामक असाध्य कहे जानेवाले रोग का बड़ा सुन्दर चित्रण निम्न शब्दों में किया है:
अन्त्रकूजनमालस्यं दौर्बल्यं सदनं तथा । द्रवं शीतं धनं स्निग्धं सकटीवेदनं शकृत् ।। आमं बहु सपैच्छिल्यं सशब्दं मन्दवेदनम् । पक्षान्मासाद्दशाहाद्वा नित्यं वाप्यथ मुञ्चति ।। दिवा प्रकोपो भवति रात्रौ शान्ति व्रजेच्च सा । दुर्विज्ञेया दुश्चिकित्स्या चिरकालानुबन्धिनी ।। सा भवेदामवातेन संग्रहग्रहणी मता । स्वपतः पार्श्वयोः शूलं गलज्जलघटीध्वनिः। तं वदन्ति घटीयन्त्रमसाध्यं ग्रहणीगदम् ।।
(माधवकर)
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