________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
६६०
विकृतिविज्ञान
१२. मल में अत्यधिक दुर्गन्ध आती है, यह गन्ध कई प्रकार की हो सकती है । पैत्तिक ग्रहणी में ग्रहणी के मल के जो साधारणतया चिह्न और लक्षण बतलाये ये हैं वे तो सभी यथावत् मिला ही करते हैं पर साथ में मल का पीलापन लिए नीला होना, रोगी को दाहाधिक्य मिलना, उसे प्यास अधिक लगना, मल पतला बदबूदार होना तथा पित्तोल्बणता के शरीरंगत अन्य लक्षण मिलते जैसे पूत्यक्लोद्वारादि महत्त्वपूर्ण हैं । इस रोग में अन्न की सम्पूर्ण श्लेष्मलकला व्रणशोथात्मक ( inflammed ) हो जाती है इसे नहीं भूलना चाहिए । श्लैष्मिक ग्रहणी
गुर्वतिस्निग्धशीतादिभोजनादतिभोजनात् । भुक्तमात्रस्य च स्वप्नाद्धन्त्यग्निं कुपितः कफः ॥ ऊपर के सूत्र में चरक ने कफ के प्रकोप के कुछ कारणों पर प्रकाश डाला है जिनमें भारी पदार्थों का सेवन, अधिक चिकनाई से युक्त वस्तुओं का ग्रहण करना, शीतल, द्रव, पिच्छिल पदार्थों का लेना, अत्यधिक भोजन करना, और भोजन करके सो जाना इन कई कफकारक कारणों से कफधातु प्रकुपित होकर अग्नि को नष्ट कर देती है । अग्नि का नाश ग्रहणी का सर्वप्रथम एकमात्र और मूल कारण है । अग्निनाश के साथ ग्रहणी के अन्य लक्षणों का उदय होना तत्तद्दोषजन्य ग्रहणी की उत्पत्ति में कारण बनते हैं । यहाँ अग्निनाश का कारण कफकारक अवस्थाएँ हैं इस कारण जो ग्रहणी व्याधि उत्पन्न होगी वह कफज ग्रहणी कहलावेगी । जहाँ पैत्तिक या वातिक अवस्थाएँ अग्निनाश में कारण बनती हैं वहाँ पैत्तिक अथवा वातिक ग्रहणी की उत्पत्ति बनती है । तस्यान्नं पच्यते दुःखं हल्लासच्छर्धरोचकाः । आस्योपदेहमाधुर्य कासष्ठीवनपीनसाः ॥ हृदयं मन्यते स्त्यानमुदरं स्तिमितं गुरु । दुष्टो मधुर उद्गारः सदनं स्त्रीष्वहर्षणम् ॥ उपर्युक्त कफकारक कारणों के द्वारा नष्ट हुई जाठराग्निवाले रोगी के अन्न का पाक दुःखपूर्वक होता है उसे मतली और वमन आती हैं और अरोचक रहता है । मुख लिपा सा मीठा-मीठा होता है । उसे खाँसी, धुकधुकी, जुकाम होता है वह हृदय को सान्द्र या घना ( भारी ) सा मानता है । उदर निश्चल और बद्ध सा तथा गौरव से युक्त मिलता है । मुख से बुरे मीठे मीठे डकार आते हैं, चित्तावसाद रहता है और रोगी स्त्री को देखकर उसमें रति करने के लिए अपने को असमर्थ पाता है । ये सभी लक्षण कफजग्रहणी के साथ-साथ मिल सकते हैं। अब हम आगे विविध शास्त्रों में वर्णित मुख्य लक्षणों की ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट करते हैं—
।
१. भिन्नामश्लेष्मभूयिष्ठगुरुवर्चः प्रवर्त्तनम् । अकृशस्यापि दौर्बल्यमालस्यञ्च कफात्मके || (चरक) २. गुरुभिः कफात् - ( सुश्रुत )
३. भिन्नामश्लेष्मसंसृष्टगुरुवर्चः प्रवर्तनम् । अकृशस्यापि दौर्बल्यम्
॥ ( वाग्भट )
४. कासनिष्ठीवनं छर्दिः मधुरास्यमरोचकम् । भिन्नामइलेष्ममिश्रं च सार्यते चोदकं गुरु ॥ दुष्टो मधुर उद्गारः पीनसश्च कफाधिके । अकृशस्यापि दौर्बल्यमालस्यञ्च
कफात्मके ॥ (सिद्धविद्याभूः )
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५. हल्लासछद श्वसनं च शोफः कासो जडत्वं च स शीतता च । वैरस्यमास्ये गुरुगात्रता स्यात् अरोचकं शंखशकृदग्रहस्तु || ( हारीत ) ६. स्निग्धं सितं श्लेष्मयुतं कफाच्च । ( वैद्यविनोद )
For Private and Personal Use Only