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विकृतिविज्ञान
इससे अछूती रहती हैं पर यह भी उतना ही सत्य है कि रोग परिवार की स्त्रियों के द्वारा ही गमन करता है ।
औटो ने सन् १८०३ ई० में इस रोग के सम्बन्ध में जो कथानक लिखा है उसे लिखने का मोह संवरण नहीं किया जा सकता । उसने कहा कि मेरीलैण्ड नामक स्थान पर किसी पिता को ६ बच्चे थे । उनमें से ४ पुत्र थोड़ा खुजाने से हुए रक्तस्त्राव के कारण समाप्त हो गये इनमें भी अन्तिम पुत्र की तर्जनी अंगुली के नाखून पर एक कंकड़ी गिर गई जिसके कारण अंगुलि के अग्र से इतना रक्त निकलने लगा कि उसे कोई रोक न सका और तब तक रक्त बहता रहा जब तक कि उसका शरीरान्त नहीं हो गया । बचे हुए दोनों पुत्रों के सम्बन्ध में पिता हर क्षण चिन्तित रहता है कि कहीं किसी आघात के कारण रक्तस्राव होकर उनकी भी वही दशा न हो जावे । इन्हें थोड़ी सी खुर्सट आने पर बहुत अधिक रक्तस्त्राव होने लगता है । पर इन भाइयों की एक बहिन भी है उसे कोई भी डर नहीं है उसको आघातों से रक्तस्राव नहीं होता और यदि होता भी है तो शीघ्र बन्द भी हो जाता है । एक पिता ने यह कथा मुझे सुनाई पर औटो कहता है कि मुझे उसका और अधिक विवरण जानने की कोई आवश्यकता नहीं हुई ।
शोणप्रियता एक बाल रोग है । शिशु के आरिम्भक पहले दूसरे या तीसरे वर्ष तक रक्तस्रावी प्रकृति का पता लग जाता है । यही तीन आरम्भिक वर्ष शिशु के लिए बहुत खतरनाक हुआ भी करते हैं । नीलोहा में जहाँ स्वग्गतरक्तस्राव के लिए किसी बाह्य कारण की आवश्यकता नहीं होती वहाँ शोणप्रियता में रक्तस्राव के पीछे किसी आघात का, क्षत का, विद्ध का या शस्त्र के लगाने का इतिहास अवश्य मिलता है ।
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शोणप्रियता में मुख्य परिवर्तन रक्त के आतंच काल ( clotting or coagulation time ) में वृद्धि होना है । सामान्यतया यह आतंच काल ३-४ मिनट का हुआ करता है पर एक शोणप्रियता के रोगी में वही बढ़ कर घण्टों का हो जाता है। इसमें रक्त के बिम्बाणुओं की संख्या प्रकृत रहती है । पर थ्रोम्बोकीनेज ( घनास्त्रिकर ) नामक विकर ( एञ्जाइम ) का अभाव हो जाता है । होवेल तथा केकाडा का मत है कि जब किसी शोणप्रिय रोगी के शरीर से रक्तस्राव होता है तो उसके रक्त के बिम्बाणु ज्यों के त्यों रहते हैं टूटते नहीं बिना टूटे उनके अन्दर बन्द आतंची विकर मुक्त नहीं हो पाता जिसके बिना मुक्त हुए आतंच बनता नहीं ।
आतंच के निर्माण में फिब्रीनोजन ( तविजन ), प्रोथ्रोम्बीन ( पूर्वघनास्त्रि ), थ्रोम्बोकीनेज ( घनास्त्रिकर ) तथा चूर्णातु ( कैल्शियम ) की आवश्यकता हुआ करती है । इनमें तत्विजन, पूर्वघनास्त्रि तथा चूर्णातु रक्त में रहते हैं । घनास्त्रिकर आघात प्राप्त ऊतिकोशाओं तथा बिम्बाणुओं से मिलता है । पूर्वघनास्तिकर मिल कर घनास्त्रि ( औम्बीन ) का निर्माण करते हैं । यह घनास्त्रि तन्विजन से मिल कर aa (फिबीन ) पैदा करती है । यह तो एक स्वाभाविक क्रिया है जो आतंच की उत्पत्ति करती है । शोणप्रिय रोगियों में यह आतंच बनने में इतने विलम्ब का कारण
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