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विकृतिविज्ञान
लक्षण मिले होते हैं । इसी का सौम्यरूप साधारण नीलोहा कहा जाता है । यह एक कफरक्ती या अलर्गिक रोग है । और बहुरूपीय अतिरक्तिमा ( erythema multiforme ), ग्रन्थीय अतिरक्तिमा ( erythema nodosum), वाहिन्यवातीय शोफ ( angioneurotic oedema ) तथा लसीरोग ( serum sickness ) आदि अलग अवस्थाओं से सम्बन्धित होता है । इस रोग में केशालप्राचीरें इतनी अतिवेध्य या प्रवेश्य ( permeable ) हो जाती हैं कि उनसे रक्तरस और रक्तकण सरलता से बाहर चला जाता है । इसका कर्त्ता सदैव एक नहीं रहता । कभी यह कार्य मालागोला करता है तो कभी आहार के प्रति वृद्धिंगत अनुपता या असहिष्णुता उसे करती है। त्वचा में रक्तस्राव का होना, शीतपित्त हो जाना, अतिरक्तिमा ( erythema ) हो जाना आदि लक्षण देखे जाते हैं । नासा तथा महास्रोतीय श्लेष्मलकला से भी रक्तस्राव होता हुआ देखा जा सकता है । रक्तस्राव के अतिरिक्त रक्तलस का इतना अधिक पारयातन ( transudation ) आमाशय और आन्त्र से होता है कि इन अंगों में तीव्र शूल उत्पन्न हो जाता है वमन होने लगता है और अतीसार ( diarrhoea) भी उत्पन्न हो जाता है । इन लक्षणों को लेकर कितने ही शल्य विशारद भ्रम में पड़ जाते हैं । ज्वर तथा सौम्यरूप का सितकायाणूत्कर्ष भी होकर निदान के समझने में पर्याप्त कठिनाई डाल देता है । यह निदान सम्बन्धी समस्या तब और जटिल हो जाती है जब साथ में स्वग्गत लक्षण अनुपस्थित हो हैं और केवल महास्त्रोतीय लक्षण ही पाये जाते हैं । इस रोग के साथ साथ आन्त्रान्त्र प्रवेश ( intussuception ) भी मिला करता है । शूल और शोथ भी पाया जा सकता है । ब्वायड को एक ऐसा रोगी मिला जब इसी रोग से पीडित रोगी के वृक्क से रक्तस्राव हो रहा था रक्त उपस्थित था । वह साध्यासाध्यता की दृष्टि से इसे साध्य मानता है । अन्य विद्वानों की दृष्टि में इस रोग में रक्तस्राव एक प्रमुख घटना है । जो घ्राणास्राव रक्तवमन, रक्तातिसार या रक्तमेह के रूप में एक ही व्यक्ति में विविध अवसरों पर मिल सकता है । यह कभी न भूलना चाहिए कि इस रोग में बिम्बाणुओं में कोई विकृति नहीं आती उनकी संख्या ही कम होती है हाँ कई बार या बार बार रक्तस्राव होने से उनकी संख्या आगे चलकर अवश्य घट सकती है। रक्तस्राव के साथ अलर्गिक लक्षणों की उपस्थिति रोग की पहचान में विशेष सहायता प्रदान करती है ।
सन्धियों में भी देखने को जिसके मूत्र के साथ स्वतन्त्रतया
३ शूनलीनीय नीलोहा ( Schonlein's purpura )
इस रोग को नीलोत्कर्षीय आमवात ( Peliosis rheumatica ) या आमवातीय नीलोहा ( Purpura rheumatica ) कहते हैं । ऐसा विश्वास किया जाता रहा है कि यह रोग आमवात के कारण होता है इसी के कारण ये नाम इसे दिये गये हैं । पर यह अब तक भ्रम ही सिद्ध हुआ है आमवात और इस रोग में कोई साम्य नहीं है इसे निश्चित रूप से आमवात के साथ वाले नामों के साथ कदापि न जोड़ना चाहिए। यह भी ऊपर के रोग का ही दूसरा
और विद्वानों का मत है कि
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