________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भूमिका
आयुर्वेदाचार्य डा० भास्कर गोविन्द घाणेकर
बी० एस० सी० ; एम्० बी० ; बी० एस० ;
विकृतिविज्ञान का महत्त्व - शास्त्र की दृष्टि से वैद्य का वैद्यत्व रोगों का अचूक निदान करने की उसकी योग्यता पर जितना निर्भर होता है उतना चिकित्सा में सफलता प्राप्त करने की उसकी योग्यता पर नहीं होता। इसका कारण यह है कि निदान की योग्यता वैयक्तिक गुणसंपदा है और चिकित्सा की सफलता सामूहिक गुणसंपदा है जिसमें वैद्य के अतिरिक्त औषध, रोगी, परिचारक इनकी गुणसंपदा की भी आवश्यकता होती है
भिषग् द्रव्याण्युपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम् ।
चिकित्सितस्य निर्दिष्टं प्रत्येकं तच्चतुर्गुणम् ॥ ( वाग्भट )
और सबके ऊपर जैसा कि गीता में लिखा है- 'देवं चैवात्र पंचमम् -' भी रहता है । इसलिए व्यवहारपद सुभाषितकारों ने कहा है
व्याधेस्तत्वपरिज्ञानं वेदनायाश्च निग्रहः । एतद्वैद्यस्य वैद्यत्वं न वैद्यः प्रभुरायुषः ॥
इन बातों का विचार करने पर यह कहना पड़ता है कि यदि वैद्य को वैयक्तिकहृष्ट्या अपनी योग्यता बढ़ानी हो तो उसको रोगों के निदान में और सब विषयों की अपेक्षा अधिक प्रावीण्य प्राप्त करने का परम प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयत्न तभी सफल हो सकता है जब वैद्य विविध रोगों में होने वाली विविध विकृतियों का तथा उनके विकासक्रम का गाढा अध्ययन करके उनके कार्यकारणभाव को भलीभाँति समझ लें
संचयं च प्रकोपं च प्रसरं स्थानसंश्रयम् ।
व्यक्ति भेदं च यो वेत्ति दोषाणां स भवेद्भिषक् ॥ ( सुश्रुत )
विकृति विज्ञान की परिभाषा - जिन कारणों से शरीर के धात्वाशयादि अंगों की साम्यावस्था या स्वस्थावस्था नष्ट होकर उनमें विविध विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं उनको रोगकारक हेतु (Etiological factors) और उनके शास्त्र को हैतुकी (Etiolgy) कहते हैं। ये कारण असंख्य होते हुए निम्न विभागों में विभक्त किये गये हैं
For Private and Personal Use Only