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Jaina Literature and Philosophy
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Subject.- Glorification of the Jaina Deity in Vernacular ( Hindi ) Begins.- fol. 5 अथ त्रितीयस्तुति प्रारंभ्यते ॥
जय परमात्मन् ! ॥ जय शुद्धात्मन् ! ।। जय चैतन्यमूर्ति ! ॥ जय आनंदघन ! ॥ भो प्रमो! इस संसार मैं अनादि ते लगाय मैं अनंत पर्याय धरेति न पर्यायनि वि मोळू हू अनेक अहितकारी संयोग मिले। कोउ सहाई न मिल्यो इहां दानी तुम मोहूवं परम उपगारी मिले । सो प्रथम तो तुम्हारे शरीरकी
शांत मुद्रा देखते ही मेरे शांतता भई । etc. Ends.- fol. 7.
___अर तिसकी प्रगटता भी अब सीघ्र ही होसी । ऐसी प्रतीत आबने करि मेरै तौ अब ही सर्वज्ञ वीतराग स्वरूप पायेंका सा आनंद भया। मैं तो छतकृत्य होनि बस्या ॥ अब जो कर्तव्य है सो तुम्हारा है। मैं तो तुमळू वस्तुस्वरूप का अनुभवी अर परम उपकारी जांनि पारंबार नमस्कार कसं हं॥ नमः सिदंइहां नमस्कार करना ॥३॥
इति त्रितीयस्तुति संपूर्ण ॥३॥छ॥
र त्रिपुरास्तोत्र
Tripuråstotra No. 244
575(48).
1895-98. Extent.- fol. 37° to fol. 38. Description.- Complete ; 24 verses in all. For other details see
___Namaskāramantra (Vol. XVII, Pt. 3, No. 737). 20 Author.- Laghu-Panditaraja.
Subject.- Praise of Tripura, a goddess. Begins- fol. 370
आधारे( बिरुचिरं सोमप्रमं तावं
बीज मन्मथ इंद्रगोपकनिमंहदपंकजे संस्थितं । रंधे ब्रह्मपदस्य शक्तिमपरं चंद्रप्रभामाखरं
ये ध्याति पदवयं तब सिवे ! ते योति सौष्यं परं॥१॥ पेंद्रस्येव शराज्ञामस्य वरती मध्ये ललाटं प्रभा
शौकी कांतिमहष्णगोरिव शिरस्यातम्वती सर्वतः।
एपा(s)सो त्रिपुरा हदि तिरियोष्णांशो सदाह(0) स्थितां 30
छिया : सहसा पदेसिमिरमा ज्योतिर्मयी वाश्मयी ॥२॥