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________________ Jaina Literature and Philosophy [156. चिदानंद आनंदमय चिदरूपी अविकार सिद्ध बुद्ध सुचि सुद्ध तूं तूं जगप्ररमाधार ॥१॥ तुझ कपाळताथी करूं भाषा भाषारूप तवना जिन बाबीसनी आनंदघनरसकूप ॥२॥ etc. is Ends.-( text ) fol. 121* अंतिम भव गाहिणे तुझ भावनू रे ॥ भावस्यूं सुद्ध सरूप ॥ ॥ तह आनंदघन पद पामस्थू रे ।। आतमरूप अनूप ॥ ॥ ए आंक० ॥ च०७॥ इति श्रीमहावीरजिणंस्तवनं संपूर्णमः ॥ २४ ॥ etc. 10 " -(com. ) fol. 121b आनंदघनकृत तवनमा मुझ तव. अतिवीव अंतररयणी दीवसनौ उज्जल जचवलि कीच ॥ १२ ॥ ए विन आनंदघन तणा अरथ रहसपद दीठ तस प्रसाद एहवा थया नीट नीट पदनीठ ॥१३॥ ॥ इति श्रीआनंदघनजीकृतसूत्र ॥ पं ज्ञानसारखत बालाबोध चतुर्विंशति15 . जिनेंद्राणां स्तुति संपूर्णा समाप्ताः॥ संवत १९२१ ना चैत्र वद ३ वार बूद्धवासरे ग्रंथ समाप्तं , जंगमजूगप्रधानभट्टारकभीश्रीश्री१०८श्रीजिनचंद्रसूरिसूरान ततसिष्य हरीकूसलजी ततसिष्य पं सागरचंद लिषीतं सच अरथै श्री'मरतबिंद्र'मध्ये ठिकाना 'गोपीपूरा'मै 'ओसवाल' मोहलामा श्रीवास्यपूज्यजीमहाराजमंदरकै पास लषितं उपरकी प्रत्त संवेगी मूनी दयाचंदजी से लेइने अपने वास्ते लिषतं श्रीकल्याणमस्तुं श्रीशुभं भवतु श्री ।। 'परतरंगछसिरोमणी ज्ञानशार मनोहार स्तवना जिन चौवीषकि करत वरत सुषसार ॥१॥ श्रीजिनकुशलसूरीदके रहत सूरन परताप ता मै लषत चौवीशक जिनस्तवन्नामयकाप ॥२॥ अब्द परीसह अंक शशी (१९२२) मधुकृष्ण वीधुसत रत्नलींगवासर लिष्यो ग्रंथ सागर हरीयुत ॥ ३ ॥ पूछया पंडितथी अरथ सरी न कारज सिद्ध । केथी अर्थ थy नहीं केणे कस्यं विद्ध ॥ ४॥ ज्ञानविमल कीनौ अरथ बांच्यौ वारंवार पिण किमही न विचारणा करत करी निरधार ॥५॥ सूर उदै विण कुण करै जव गति जलजविकास तिम मति रवि प्रति भास किरण रहिस करै सुविकास ॥६॥
SR No.018125
Book TitleDescriptive Catalogue Of Manuscripts Vol 19 Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Rasikdas Kapadia
PublisherBhandarkar Oriental Research Institute
Publication Year1957
Total Pages402
LanguageEnglish
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size23 MB
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