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________________ S 10 IS 20 25 316 Jaina Literature and Philosophy सांतिहरष सिष तेहना । 'वाचक' पदवीना धार । इण ('कलि') कालै जोवतां । एतौ गौतमनै अवतार ॥ ७ ॥ म० ॥ सुंदर वरण सुदामणा री । जण जण मुष जस वास । ते सदगुरु पसाउ है । ए रच्यौ संबंध उल्हास ॥ ८ ॥ म० ॥ प्रथम सिष तेहना भला । जिनहरष जेहनुं नाम । कठिन क्रिया जिण आदरी । इक तप संयमनुं काम ॥ ९ ॥ म० ॥ रागी सिष तेहना । सुषवरधन सहज सुजाण । विनयवंत वाषाणीयौ । एतौ सकलकलासुविधाण ॥ १० ॥ म० ॥ लीलावतीनी चौपई । तजि आलस करहुं तयार | 1 ee आग्रह तिण कीयौ । तिण रज्यौ सरस अधिकार ॥ ११ ॥ ० ॥ नवनवी निरती ढालसुं । जौ एह चौपई होइ । चमतकार चतुरां नरां । सुणि हरष धेरै सहु कोइ ॥ १२ ॥ म० ॥ संवत सतरै से गया । वलिभ ऊपरि अट्ठावीस | काती सुदि चवदिसि दिने । ए संपूरण सुजगीश ॥ १३ ॥ म० ॥ सहरसे भावै सोभता । भला वसै महाजनवृंद | 'परतर' गच्छरागी घणुं । जिणधरम तणै सानंद ॥ १४ ॥ म० ॥ यार मास सुषसुं रह्या श्रीसंघ तणै सुपसाउ | धरमी श्रावक श्राविका । दिन दिन अधिकौ ही ज भाउ ॥ १५ ॥ म० ॥ विहां ए कीधी चौपाई | गाथा छ सै ( ६०० ) परमाण ॥ गुणतीस (२९) ढाल गुणे भरी । सुणतां हरष सुजाण ॥ १६ ॥ म० ॥ सुभ जे भावसुं । ए सती तणु अधिकार । कहै लाभवरधन तेहनै । रिधि वृधि सदा सुषकार ॥ १७ ॥ म० ॥ [554. सर्वगाथा ॥ ६१९ ॥ इति सीलविषये लीलावतिचतुष्पदी समाप्ता ॥ संवत् १७७० वर्षे आसूवदि ४ शनौ || लिषितं देवचंद्रेण ॥ 'बीलाडा'मध्ये ॥ श्रीरस्तु [:] ॥ कल्याणमस्तु [:] ॥ Reference. For extracts and additional Mss. see Jaina Gurjara Kavio ( Vol. II, pp. 213-215 and Vol. III. pt. 2, pp. 1218-1219 ).
SR No.018120
Book TitleDescriptive Catalogue Of Manuscripts Vol 19 Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Rasikdas Kapadia
PublisherBhandarkar Oriental Research Institute
Publication Year1977
Total Pages442
LanguageEnglish
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size24 MB
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