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Jaina Literature and Philosophy
[ 1095.
यत् चरणगुणस्थितसाधुर्भवतीति कथ्यते । यत् जे बचन चरण चारित्र तणा गुणनहं विषइ स्थितः भणीइ रहिउ सावधान साधुभवति महात्मा हुइ । इति रसिउं कथ्यते कहीइ । एतलई गुरे इम कहितं । सघलाइ न्याय जूजूडं बोलइ । ज्ञानवादी ज्ञान थापइ । क्रियावादी क्रिया थापइ । पणि सघलां न्याय तणु तत्त्व ए । जं शुद्धचरित्रवंत महात्मा वखाणीइ । जेह कारण सूधउं चारित्र तेहह जिनहं हुइ । जे ज्ञानवंत हुइ । एह कारण ज्ञानवंत शुद्धचारित्री सर्वोत्कृष्ट जाणिवु । ए सर्व न्याय तणुं तत्त्व जाणिवं । इति श्रीआवश्यक सूत्रस्य बालावि (व) बोध समाप्तं । श्रीरस्तु etc. संवत् १६१०[०] वर्षे वैशापवदि ३ शुक्रे म० गोवाल लिखितं श्री' साधुपूर्णिमा' पक्षे सुक्ष (ख्य ) भट्टारक श्री उदय चंद्रसूरि तत्पट्टे पु (पू) ज्याराज्य(ध्य ) श्रीमुनिचंद्रसूरि तत्पट्टे गच्छाधिराजगच्छ भारधुरिंधर श्रीश्रीश्रीविद्याचंद्र (?) रिंद्रे एषा पुस्तिका लिखापिता ॥ सर्वेषां शश्यानां वाच
etc.
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Ends. fol. 311 *
आवश्यक सूत्र नियुक्तिदीपिका
No. 1096
Avasyakasūtraniryuktidipikā
373. 1879-80.
Size.—ro in. by 4g in.
Extent.— 423 folios; 11 lines to a page ; 42 letters to a line. Description. Country paper thin and greyish; Devanagari characters with पृष्ठमात्राs; big, legible and good handwriting; borders ruled in four lines in black ink ; nos. for foll. entered only once ; foll. r and 423b blank ; diagrams. on fol. 13b; foll. 65 and 66 damaged in the margin; condition very good; complete.
Age. Sarvat 1633.
Author.- Manikyasekhara Sūri, pupil of Merutunga Suri of the Vidhipaksa. For his other works see " Ends " ( p. 457 ). Subject. Avasyakasütraniryukti explained in Sanskrit.