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________________ Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts, Pt. XVIII (Appendix) 525 तस्य शिष्योऽभवज्ज्ञानी भक्तितत्त्वयथात्मवान् । सन्तदास इति ख्यात: सत्सेवाऽस्य हृदिस्थिता ॥४४॥ रामनामरसास्वादी नैरन्तर्यसमाधिमान् । स्वसदृशान् बहून् शिष्यान् कृतवान्नामनिष्ठया ॥४॥ करोमि शरणं तस्य ब्रह्मानन्ददायिनः । ब्रह्मानुभवसंदातुःसर्वदा शुद्धचेतसः ॥४६॥ CLOSING: कृता बालकदासेन गुरुपारम्परा शुभा। तो पठेद् यो नरो भक्त्या तस्मै तुष्टो भवेद्धरिः ।।४७॥ COLOPHON: इति श्रीबालकदासेन विरचिता गुरुपरम्परा समाप्ता। 2907/7699 त्रिपुराभारतीलघुस्तव भाषाटीकासह OPENING:: ॥६०॥ ऐन्द्रस्येव शरासनस्य दधती मध्ये ललाट प्रभां अर्थ-ये यगदीश्वरी युगना लोक वश करवा पाथणइ निलाडिनिइ विषइ इन्द्रधनुषनी प्रभानी परि रक्तप्रभा धरइछइ । एतलइ प्रथम ऐंकाररूप वाग्बीज जाणवु। शौक्लीं कान्तिमनुष्णगोरिव शिरस्यातन्वती सर्वतः । अर्थ:-जे जगदीश्वरी जगत निबद्धि प्रकाश करवा पापणा मस्तकनि विषइ चन्द्रप्रभानी परि शुक्ल धवल कान्ति विस्तार धरि छि, एतलइ बीजो अक्षर क्लींकार रूप कामराज बीज जाणिव । एषाऽसौ त्रिपुरा हृदि द्यु तिरिवोष्णांशोः सदाहः स्थिता, अर्थ-अनि वली जे जगदीश्वरीना हृदयकमलनि विषई लोकनई लक्ष्मीदेवीनी अथि सूर्यना तेजनी परि रसप्रताप तेजवंत छि, सौं एहवु पद छि, एतलइ शोंकार रूप त्रीजु शक्तिबीज जाणिवु । एतलइ बाला त्रिपुरानु मन्त्र जाणिवो ।छः।
SR No.018086
Book TitleCatalogue Of Sanskrit And Prakrit Manuscripts Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Jamunalal Baldwa
PublisherRajasthan Oriental Research Institute
Publication Year1984
Total Pages634
LanguageEnglish
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size32 MB
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