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Rajasthan Oriental Research Institute, Jodhpur. (Jaipur-Collection)
जहां की सैली देखि के, हिय मैं हर्ष न माय । षमन्दिर जिनराज के, वष उद्योत लखाय ॥७॥ ग्रन्थ सूक्तमुक्तावली, देखि हियो उमगाय । करौं वचनिका तास की, बालबोध सुखदाय ।।८।। ता पीछे पण्डित सही. धनजीमल इहां प्राय । तिननै बहु प्रेरन करी, करो वचनिका जाहि ॥९॥ तब हमने भाषा करी, अलप बुद्धि हम जांनि । पण्डित मति हसियो मुझे, मो परि प्रीति सुठांनि ॥१०॥
॥ सवैया ३१॥
सुखद अनूप ग्रन्थ सूक्तमुक्तावली पन्थ, जामैं है सुतंत्र ऐसो भाषा निरभयो है । दरशन शुद्ध होत दूरि दुरबुद्धि होत बुद्धि रिद्धि वृद्धि होत........ ।
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भ्रमत मत जाहि बालक हु बोध पाई, पद प्राप वर्ण लाय कर्ता काडि लयो हैं ॥ ११॥ रस युग सराग ससि (१८३६) संवत सुमास वर, जेठि कृष्ण दोजि वार सुरगुरु मानिये । दिवस सुयाम दोय गये ग्रंथ पूरो होय, ताही को अभ्यास करै सामि जांनिये । धर्म ही तै ऋद्धि होतं वृद्धि होय धर्म ही ते, धर्म ही त सिद्धि होय पाही चित्त ठानिये। पढो पढ़ावो याहि सूनो सुनावो याहि, लिखो लिखावो याहि धरम भाव आनिये ॥१२॥
॥दोहा॥ भई वचनिका ग्रन्थ की, पूरी सरस नवीन । वक्ता श्रोता सुख नहो, पढत सुनत चित दीन ॥१३॥