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Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts, Pt. XVIII (Appendix) 507
CLOSING:
|| गाथा ||
एवं भण्डारिय नेमिचंद - रइना वि कइवि गाहाओ । विहिमग्गरया भव्वा पढंतु जाणंतु जंतु शिवं ।। १६० ।।
[ संस्कृतच्छाया ]
एवं भट्टारि (? भाण्डारिक नेमिचन्द्रः रचिता अपि कतिपय गाथाभिः । विधिमारता भव्या पद (ठ) न्तु जानन्तु यातु शिवम् ।
॥ श्रर्थ ॥
या प्रकार भण्डारी नेमिचन्द्र करि रचित कछू एक गाथा हैं तिनहि भव्यजीव है पढहु जारहु कल्याण कौं प्राप्ति होउ । कैसे है ? भव्य आचरण के मार्ग विषै रत है, यथार्थ श्राचरण में तत्पर है, एसें उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला नाम ग्रन्थ के गाथा सूत्रनि की वचनिका समाप्ति भई । इस ग्रन्थ की संस्कृत टीका तो थी नहीं, परन्तु किछू टिप्पण था, तातैं विधि मिल्याय मेरी बुद्धि मैं प्रतिभास्या तसा थं लिख्या है । कहीं भूलि अवश्य होयगी सो बुद्धिवान् सोध लीज्यौं । आम्नाय विरुद्ध अर्थ तो मैंने लिख्या नाही, परन्तु गाथा के कर्त्ता का अभिप्राय और भी होय तो समझि लीज्यो ।
॥ सवैया इकतीसा ||
रागादिक दोष जामें पाइये कुदेव सोय, ताक त्यागि वीतराग देव उर ल्याइए । वस्त्रादिक ग्रन्थधार कुगुरु विचारि तिन्हैं, गुरु निर्ग्रन्थ को यथार्थ रूप घ्याइए ॥ हिंसामय कर्म सो कुधर्म जांनि दूर त्यागि, दयामय धर्म ताहि निशिदिन भाइए || सम्यक् दरश मूल कारण सरस ये ही, इनके विचार मैं न कहूँ अलसाइए || १॥
॥ छप्पय ॥
मंगल श्रीश्ररहंत संतजन चिन्तित दायक, मंगल सिद्ध समूह सकल ज्ञेयाकृति ज्ञायक । मंगल सूर महन्त भूरि गुणवंत विमलमति,