________________
S
IO
35
25
18
30
नलकथा
20 ( नलकहा )
Ends. -- fol. 102
' तप 'गछगगनचिका सिकदिनमणि विजयरत्नसूरीसरराज्यें जी । रचना रास तणी ए कीधी आग्रह संघने प्राजें जी । २२ । श्री विजे सेन सूरीसरसेवक कीर्तिविजय उवझाया जी । तस पदपंकज षट्पदओपम मांनविजय कविराया जी । २३ ॥ तास सीस कविकुल व (ब) तक (क्ष) स्थलं मंडण भूषण दीव्य जी । रूपविजय पंडित सुपसाई कीर्ति सुधासम सव्य जी ॥ २४ ॥ कया प्रसाद लहीनें तेहनो मोहनविजय उल्लासइं जी स ढाल करीनें गायो नर्मदा केरो रास जी । २५ ।। कोई भणस्यें गुणस्यें स्मणस्यें ते लदे (हे) परमाणंदा जी मंगल एरापति घर अंगण सोभस्ये योभावृंदा जी || २६ ॥ वरि परि मंगल लिला लब्धि प्रकटें पून्यप्रकास जी श्रोता जन स्तुति धरयो सल ( हूं ) को मोहनवचनविलासजी ॥ २७ ॥
1
इति श्रीनर्मदासुंदरीरास संपूर्ण ॥ संवत् १७८५ पौषशु० १३ दिने पं. गुणविजयगणि श्रीविजय... भासुरीसरजी शिष्य श्रीबेलाग्रामे लिखितं । Reference.— Published by Bhimsi Manek. For extracts and additional Mss, see Jaina Gurjara Kavio ( Vol. II, pp. 428-430 & Vol. III, pt. 2, pp. 1377-1378 ).
No. 337
Size.
Jaina Literature and Philosophy
-
Jain Education International
[336.
104 in. by 48 in.
Extent.—12 folios; 16 lines to a page ; 55 letters to a line. Description. - Country paper thin, tough and white ; Jaina Devanagari characters with rare पृष्ठमात्राs; small, quite legible, uniform and very good hand-writing; borders ruled in three lines in red ink; foll. numbered in the right-hand margin; there is some space kept blank in the centre of the numbered and unnumbered sides as well; edges of some of the foll. gone; a corner of the last fol. worn out; condition on the whole tolerably good; complete.
For Private & Personal Use Only
Nalakathā
( Nalakahā )
1292. 1884-87.
www.jainelibrary.org