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न बनता हो) तो इसमें कृतिनाम सूचीकरण हेतु यहाँ पर निर्धारित यथानियम/यथायोग्य 'सह' आदि से युक्त आएगा.
यथा - आवश्यकसूत्र सह नियुक्ति व टीका. (४) प्रत में यदि एकाधिक पेटाकृति/संयुक्त कृति परिवारांश हो तो यह नाम यथायोग्य विविध प्रकार का निम्नवत् दिया
गया है(अ) प्रत में एक या अधिक कृतियाँ अंत के पत्रों में या क्वचित प्रारंभिक पत्रों में गौण रूप से हो तो यह नाम निम्न रूप से मिलेगा. • कल्पसूत्र सह टबार्थ व पट्टावली
• गजसुकुमाल रास व स्तवन संग्रह (आ) प्रत में अनेक कृतियाँ गौण मुख्य भेद के बिना संगृहीत हो तो नाम निम्न रूप से सामान्य प्रकार के होंगे
• स्तवन संग्रह • जीवविचार, कर्मग्रंथ आदि प्रकरण सह टीका.
विशेष स्पष्टताओं हेतु देखें - 'कृति, प्रत, पेटांक, प्रकाशन नाम अवधारणा'. ४. पूर्णता - हस्तप्रत की पूर्णता संबंधी उपयोगिता व स्पष्टता को ध्यान में रखते हुए निम्नप्रकार से वर्गीकृत किया गया है.
४.१. संपूर्ण : पूरी तरह से संपूर्ण प्रत. ४.२. पूर्ण : मात्र एक देश से अत्यल्प अपूर्ण यथा - १०० में से ९८ पत्र उपलब्ध हो ऐसी प्रतों को अपूर्ण कह देने
से प्रत की महत्ता कुछ ज्यादा ही घट जाती है एवं उपयोगी होने के बावजूद भी प्रथम दृष्ट्या संशोधक प्रत को देखना टाल दे ऐसा बन सकता है. इस तरह के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए श्राद्धवर्य श्री जौहरीमलजी पारख ने संपूर्णता की नजदीकी को बतलानेवाले अर्थ में 'पूर्ण' शब्द को ऐसे संदर्भ में रूद
किया था. ४.३. प्रतिपूर्ण : प्रतिलेखक ने उपयोगिता, आवश्यकता व सुविधा आदि के आधार पर कोई खास अध्याय अंश मात्र
ही लिखा हो और उतना संपूर्ण हो. ४.४. अपूर्ण : प्रत का ठीक-ठीक हिस्सा अनुपलब्ध हो. प्रत क्वचित प्रतिलेखक/लहिया ही किसी कारणवश लिखना
अपूर्ण छोड़ देता है - ऐसे में यहाँ प्रत अपूर्ण का संकेत मिलेगा एवं पूर्णता विशेष में प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण
ऐसा उल्लेख मिलेगा. ४.५. त्रुटक : बीच-बीच के अनेक पत्र अनुपलब्ध हो. ४.६. प्रतिअपूर्ण : प्रतिलेखक ने ही कोई खास अध्याय मात्र ही लिखा हो और उसमें भी पत्र अनुपलब्ध हो.
खासकर प्रत के अंत सिवाय के पत्र अनुपलब्ध हो ऐसे में यह संकेत तय हो सकता है.
यह पूर्णता प्रत व कृति दोनो स्तरों पर होती है. दोनों स्तरों पर यह परस्पर समान और भिन्न भी हो सकती है. यथा- प्रत अपूर्ण हो तो भी उसमें यदि स्तवन आदि पेटा कृतियाँ हैं तो ज्यादातर पेटा कृतियाँ संपूर्ण हो सकती है. जिन कृतियों के पत्र नष्ट हो चुके है वे ही अपूर्ण होगी, सब की सब नहीं. इसी तरह संयुक्त रूप से लिखे गए मूल व टीका में से अंतिम पत्र नष्ट होने से मूल संपूर्ण और टीका अपूर्ण हो सकती है. क्वचित दोनों संपूर्ण हो और मात्र प्रतिलेखन पुष्पिका का भाग अनुपलब्ध होने से प्रत को संपूर्ण का दर्जा नहीं दिया गया हो ऐसा बन सकता हैं. ऐसे में प्रत के साथ पूर्णता 'पूर्ण' लिखा मिलेगा एवं दोनों कृतियों की पूर्णता में 'संपूर्ण' लिखा मिलेगा. • जहाँ प्रत व कृति दोनों की पूर्णता एक जैसी होगी वहाँ मात्र प्रत स्तर पर ही पूर्णता का उल्लेख मिलेगा. परंतु कृति की पूर्णता जहाँ प्रत से भिन्न होगी वहाँ वहाँ कृति के साथ भी खुद की पूर्णता का उल्लेख मिलेगा. • कृति स्तर पर यह मात्र - संपूर्ण, पूर्ण व अपूर्ण इन तीन प्रकार का ही मिलेगा.
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