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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रस्तुत हस्तप्रत सूचीगत सूचनाओं का स्पष्टीकरण जैन हस्तप्रतों का समावेश करनेवाली हस्तप्रत आधारित इस सूची में सूचनाएँ दो स्तरों पर दी गई हैं. (१) प्रत माहिती स्तर (२) संबन्धित कृति माहिती स्तर प्रत माहिती स्तर इस स्तर पर प्रत संबंधी उपलब्ध सुचनाएँ उपयोगिता एवं सूची पुस्तक के कद की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए विविध अनुच्छेदों में निम्नोक्त क्रम से शक्य महत्तम विस्तार से दी गई हैं. यद्यपि कम्प्यूटर पर ये सूचनाएँ और भी विस्तार से उपलब्ध है. १. प्रत क्रमांक : प्रत्येक प्रत का यह स्वतंत्र क्रमांक है. इस विभाग में मात्र जैन कृतियोंवाली प्रतों का ही समावेश होने से व बीच-बीच में अन्य वर्गों की प्रतें भी अनुक्रम में होने से वे क्रमांक यहाँ नहीं मिलेंगे. यह क्रमांक अनुच्छेद- Paragraph के बायी ओर निकला हुआ गाढ़े अक्षरों Bold type में छपा है. २. प्रत महत्तादि सूचक चिह्न यदि प्रत संशोधित हो, टिप्पणक आदि से युक्त हो, कर्ता के स्वहस्ताक्षर से लिखित हो इत्यादि निम्नोक्त आधारों से प्रत महत्वपूर्ण सिद्ध होती हो तो विद्वानों को प्रत की यह महत्ता बताने के लिए क्रमांक के बाद में कोष्टक के अंदर इस तरह (+), (), (#) चिह्न दिए गये हैं. २.१ प्रत में अग्रलिखित विशिष्टताएँ होने पर प्रत नंबर के बाद (+) का चिह्न लगाया गया है Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १. कर्ता द्वारा लिखित, २. कर्ता के शिष्य द्वारा लिखित, ३. प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा लिखित, ४. रचना के समवर्ती काल में लिखित, ५. संशोधित पाठ, ६. टिप्पण युक्त विशेष पाठ, ७. अन्वयदर्शक अंक युक्त पाठ, ८. पदच्छेद चिह्न युक्त पाठ, ९. संधिसूचक चिह्न युक्त पाठ, १० वचन विभक्ति चिह्न युक्त पाठ, ११. पदसूचक चिह्न युक्त पाठ, १२. शुद्धप्रायः पाठ इनका उल्लेख प्रत विशेष के तहत होगा. २.२ प्रत दुर्वाच्य, अवाच्य, अशुद्ध पाठ वाली होने पर प्रत क्रमांक के बाद () का चिह्न लगाया गया है. इनका उल्लेख 'प्र. वि. ' में प्राप्त होगा. - २.३ कट, फट जाने आदि के कारण हुई प्रत व पाठ की निम्नोक्त अवदशाओं की जानकारी कराने के लिए प्रत क्रमांक के अंत में (#) का चिह्न लगाया गया है. छप गये हैं (८) अक्षर की स्याही फैल गई है (९) नष्ट होने लगे है (१०) नष्ट हो गयें है. इनका उल्लेख 'प्रत दशा' के तहत प्राप्त होगा. (१) मूल पाठ का अंश नष्ट हो गया (खंडित) (२) टीकादि का अंश नष्ट है (३) मूल व टीका का अंश नष्ट है. (४) टिप्पणक का अंश नष्ट है (५) अक्षर फीके पड़ गये (६) अक्षर मिट गये (७) अक्षर पन्नों पर आमने-सामने ३. प्रतनाम : यह नाम प्रत में रही कृति / कृतियों के आधार से बनता है. (१) कृति के एकाधिक नाम प्रचलित हो सकते हैं उनमें से प्रत में जो नाम दिया गया होगा वही नाम यहाँ लिया गया है. यथा- कल्पसूत्र हेतु यदि 'बारसासूत्र' या 'पर्युषणाकल्प' ऐसा नाम दिया हो तो वही नाम यहाँ पर लिया गया है. जब कि द्वितीय कृति स्तर पर तो कृति का जो प्रधान नाम 'कल्पसूत्र' होगा वही आएगा. इसी तरह प्रत में 'अइमुत्ता रास' की जगह 'एमंता रास' यह नाम होगा तो वही नाम प्रतनाम के रूप में आएगा. 33 · (२) कोई टीका विशेष का बृहत् टीका के रूप में उल्लेख हो तो वह नाम इसी तरह से यहाँ मिलेगा. कई बार बालावबोध या टबार्थ हेतु कर्ता / प्रतिलेखक वार्तिक टीका जैसी पहचान देते हैं. ऐसे में 'कल्पसूत्र का वार्तिक' इस प्रकार से ही नाम मिलेगा. जब कि द्वितीय स्तर पर 'कृति नाम' में तो बालावबोध या टबार्थ इसी तरह का मिलेगा. (३) प्रत में मात्र एक ही कृति या कृति परिवार के अंश रूप अनेक कृतियाँ मिश्रितरूप से हों (पेटा कृति का मामला For Private And Personal Use Only
SR No.018024
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2003
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size5 MB
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