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1484. भगवद्गीता 'ज्ञानसप्तशती' टीकोपेता
श्री भगवान सहाय ॥ श्रीसीतालक्ष्मण भरत शत्र घ्नहनुमत्सहित श्री रामचन्द्राय
नमः ॥
श्लो० - श्राताम्रपाणिकमल प्ररणयप्रतोद
मालोलहारमणिकुण्डल हेमसूत्रम् । श्राविश्रमाम्बुकरणमम्बुदनीलमव्या
दाद्यं धनञ्जयरथाभरणं महो नः || १॥
उद्गीर्णघमंजलबिन्दुल सल्ललाट
लोलङ्घनाल कनिषङ्गतुरङ्गरेणु । प्रायात् सुयोधन पलायनमानभङ्ग
जातस्मितं वदनमर्जुनसारथेर्नः ॥२॥ सारथ्यमर्जुनस्याजी कुर्वन् गीतामृतं ददौ । लोकत्रयोपकाराय तस्मं कृष्णात्मने नमः ॥३॥
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दोहा - नमस्कार करि कृष्णको, पङ्कजपाद पुनीत ।
हरि-संतनको प्रम करि, गीता कहिहौं मीत ॥
श्रीगीताजी के कथे का प्रथम प्रसंग यह है कि जब पाण्डव और कौरव महाभारत के युद्ध को चले गए तब राजा धृतराष्ट्र भी उपस्थित हो कहने लगा कि मैं भी युद्ध का कौतुक देखने चलता हूँ इतने में वेदव्यासजी तहां आए और सकल वृत्तान्त सुन तिससे कहा कि तेरेको तो नेत्र नहीं हैं, बिना नेत्र क्या देखेगा०
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X अथ सटीक अरु दोहासहित श्रीभगवद्गीता प्रारम्भ । धृतराष्ट्र उवाच ---
श्लो० -- धर्मक्षेत्र े कुरुक्षेत्र े समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥१॥
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पद - राजा धृतराष्ट्र ने अपने सारथी संजयजी से पूछते हैं कि हे संजय, भो संजय, धर्मक्षेत्र पुण्यरूप भूमि जो कुरुक्षेत्र - कुरुक्षेत्र में, मामकाः मेरे दुर्योधनादि हैं जो, पाण्डवाश्च - रु पंडू के पुत्र धर्मराजादि पांचो भी, युयुत्सवः - युद्ध करने की इच्छा जिनको, समवेताः सन्तः - जमा होयके, कि क्या, प्रकुर्वत - करते भये ॥ १॥
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दोहा - पाणिकमल चाबुक गहें, तरलित कुंडल हार ।
पारय रथ श्राभरणं हरि, नमो संकलश्रुतिसार | धर्मखेत सुखेत कुरु, जुरे युद्ध की चाह । मेरे सुत अरु पांडु के, कहो करत भये काह ॥ १ ॥
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