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मुनिराजश्रीपुण्यविजयानां हस्तप्रतिसंग्रहे आकाशकमलं यावन्मेरुनालं हरिद्दलम् । भानुर्विकाशयत्येष तावन्नन्द्यादसौ भुवि ॥१२॥
श्रीसिद्धान्तावचूरिः ॥ [3334 ] वृ० आदिः- अथ प्रवचनसमयसारसिद्धान्तस्य बालावबोधटीका लिख्यते
. छप्पय छन्दः । स्वयं सिद्ध करतार करै, निज करम-सरमनिधि,
आपइ करण स्वरूप होइ साधन साधइ विधि । संप्रदानता धरइ आपकौं आप समप्पै,
अपादान आपतै आपकौं करि थिर थप्पै । अधिकं-जहे-आवी निज वरतै पूरण ब्रह्म पर, मूढविधि कारकमय विधि रहित विविध एकविधि अज अमर ॥१॥
___ दोहरा । अमृतचन्द्रकृत संस्कृतटीका अगम अपार । तिस अनुसार कहीं कछुक सुगम अलप विस्तार ॥६॥
आगइ श्रीकुंदकुन्दाचार्य प्रथम ही ग्रन्थ आरम्भ विषइ मङ्गलाचरणनिमित्त नमस्कार करइ हइ ॥ वृ० अन्तः
दोहरा । मूल ग्रन्थ करता भए कुन्दकुन्द मतिमांन । अमृतचन्द्र टीका करी देवभाष परवान ॥१॥
जैसा करता मूलको तैसौ टीकाकार । ताते अतिसुन्दर सरस वरतै प्रवचनसार ॥२॥ सकल तत्त्व परकासिनी तत्त्वदीपिका नाम । टीका सरसुतादेवकी यह टीका अभिराम ॥३॥
चौपाई । बालबोध यह कीना जैसें सो तुम सुनहु कहुं मैं तैसें । नगर आगरेमें हितकारी कौंरपाल ज्ञाता अविकारी ॥४॥ तिनी विचार जियमैं यह कीनी जो यह भाषा होइ नवीनी । अल्पबुद्धि ती अरथ वषानै अगम अगोचर पद पहिचान ॥५॥
यह विचार मनमै तिन राषी पांडे हेमराज सौ भाषी । आगै राजमल्लनै कोनी समयसारभाषा रस लीनी ॥६॥ अब जो प्रवचन की भाषा तौ जिनधर्म वधै सौ साषा । ताते कहहु विलम्ब न कीजै परभावना अंगफल लीजै ॥७॥
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