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कृति उपरथी प्रत माहिती प्रा., पद्य, गा.२७१८, पाकाहेम १००५६, पृ. ५०, जीतकल्पसूत्र भाष्य, वि-१६मी, संपूर्ण प्रत विशेष- गाथा-२७०८.
कुल झे.पृष्ठ-५१ जीतकल्पसूत्र-(प्रा.)स्वोपज्ञ भाष्य
गणि-जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण, प्रा., पद्य, गा.२६०६, आदि वाक्यः पवयण दुवालसङ्गं सामाइयमाइ बिन्दुसारन्तं... पातासंघवी ५८-१, पृ. १३०, जीतकल्पसूत्र सह स्वोपज्ञ भाष्य, अपूर्ण प्रत विशेष- पूण्यविजयजी द्वारा संपादित मुद्रित प्रत की तुलना में इस प्रत में मूल व भाष्यगाथाक्रम कम
है. इनकी प्रस्तावना से स्पष्ट होता है कि पुण्यविजयजी ने इस प्रत का उपयोग संपादन में नहीं किया है. आद्यन्त भाग अपूर्ण. मूलगाथा-८ से मिल रही है.
कुल झे.पृष्ठ-८७, डीवीडी-२९/४८ जीतकल्पसूत्र-(सं.)पर्याय
सं., गद्य, पाकाहेम ७१११- पे.क्र. १४, पृ. २८-३०, सर्वसिद्धान्तविषमपदपर्याय, वि-१६मी, संपूर्ण
कुल झे.पृष्ठ-८४ पाकाहेम ७१११- पे.क्र. २९, पृ. ७८-८२, सर्वसिद्धान्तविषमपदपर्याय, वि-१६मी, संपूर्ण
कुल झे.पृष्ठ-८४ जीतकल्पसूत्र-(सं.)वृत्ति
आचार्य-तिलकसूरि, सं., गद्य, रचना सं. विक्रम १२७४, ग्रं.१८००, आदि वाक्यः वन्दे वीरं तपोवीरं तपसादुस्तपेनन
यः...
पाताखेत ४५- पे.क्र. २, पृ. १-१४१, लिङ्गानुशासनविवरण, जीतकल्पवृत्ति, वि-१२९२, संपूर्ण पे. नाम- जीतकल्पसूत्र सह तिलकसूरीय टीका, पे. विशेष- श्रीमानतुंगसूरिना शिष्य पंडित गुणचन्द्रजीए
सं.१२९२ मां आ प्रत लखावीने आचार्य श्री अभयदेवसूरिने आपेल छे. प्रत विशेष- पत्र-२१८+१४१=३५९.
कुल झे.पृष्ठ-१२८, डीवीडी-६२/६४ पातासंघवी १९- पे.क्र.८, पृ. ३२४-३५८, महानिशीथसूत्र आदि, वि-१४५६, संपूर्ण पे. विशेष- वचला अने छेल्ला पानाना टुकडा छे., लेखन संवत-१४५६. स्तम्भतीर्थे.
डीवीडी-२२/४१ पाताहेसं १७३- पे.क्र. १, पृ. १-१४९, जीतकल्पसूत्रवृत्ति आदि छ ग्रन्थो, संपूर्ण
डीवीडी-९/१९ पाकाहेम ८५७, पृ. ३५, जीतकल्पसूत्र सह वृत्ति, संपूर्ण
कुल झे.पृष्ठ-३६ पाकाहेम १००५९, पृ. २६, जीतकल्पसूत्र वृत्तिसहित, वि-१६मी, संपूर्ण
कुल झे.पृष्ठ-२७ पाकाहेम १०३२३- पे.क्र. १, पृ. १-३१, जीतकल्पवृत्तिसहितआदि, वि-१६मी, संपूर्ण __ प्रत विशेष- पत्र २०मुं डबल छे. वृत्ति रचना संवत १२०० आपेल छे.
कुल झे.पृष्ठ-३४ पाकाहेम १४०२६, पृ. २८, यतिजितकल्प वृत्तिसह, वि-१६२६, संपूर्ण भांका ११७, पृ. ६२, जीतकल्पसूत्र विवरणलवसहित, वि-१६११, संपूर्ण प्रत विशेष- सूचीपत्र नं.१-५९२. वृत्तिकर्ता श्री श्रीतिलकसूरि आपेल छे.
डीवीडी-८४ जीतकल्पसूत्र-(सं.)वृत्ति ___ सं., गद्य, ग्रं.६७७३, आदि वाक्यः जयति महोदयशाली...
कृ.विः यतिजीतकल्पनी साधुरत्नसूरि कृत टीकार्नु अने आनुं आदिवाक्य भिन्न छे पण ग्रन्थाग्र जुदा छे.
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