SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 640
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृत महाकाव्य ] (६२९ ) [संस्कृत महाकाव्य १८ वीं शताब्दी के महाकाव्य-तंजोर के राजमन्त्री महाकवि घनश्याम ने ('रामपाणिपादं, 'भववत्पादचरित' तथा वेंकटेशचरित] १०० ग्रन्थों की रचना की है। केरल के महाकवि रामपाणिपाद ने ८ सौ में 'विष्णुविलास' संज्ञक महाकाव्य का प्रणयन किया जिसमें विष्णु के नौ अवतारों का आख्यान है। रामवर्मा ने ( १८०० ई० में) १२ सर्गों में रामचरित पर महाकाव्य लिखा जिसका नाम 'महाराजचरित' है। १९ वी तथा बीसवीं शती के महाकाव्य-त्रावणकोर के केरलवर्मा ( १८४५१९१०) को कालिदास की उपाधि प्राप्त हुई थी । इन्होंने 'विशाखराज' नामक महाकाव्य लिखा है । महाकवि परमेश्वर शिवद्विज केरलनिवासी थे। इन्होंने 'श्रीरामवर्ममहाराज. चरित' नामक महाकाव्य लिखा है । म० म० लक्ष्मणसूरि (मद्रासनिवासी) ने (१८५९१९१९ ई०) 'कृष्णलीलामृत' नामक महाकाव्य की रचना की है। विधुशेखर भट्टाचार्य ने 'उमापरिणय', एवं 'हरिश्चन्द्रचरित' तथा तंजौरनिवासी नारायण शालो ने (१८६०-१९१० ई०) 'सौन्दरविजय' (२४ सर्ग) नामक महाकाव्य की रचना की। गोदावरी जिले के भद्रादिरामशास्त्री (१८५६-१९१५ ई) ने 'रामविजय' तथा काठियावाड़ के महाकवि शंकरलाल (१८४४-१९१६ ) ने 'रावजी कीतिविलास' तथा 'बालचरित' नामक महाकाव्य लिखा। हेमचन्द्रराय (बङ्गाल, जन्म १८८२ ई.) ने 'सत्यभामापरिग्रह', 'हैहयविजय', 'पाण्डवविजय' तथा 'परशुरामचरित' नामक महाकाव्यों का प्रणयन किया । - संस्कृत में कालिदासोत्तर महाकाव्य-लेखन की परम्परा में युगान्तर के चिह्न स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने लगे थे। फलतः उसके कलेवर में ही नहीं अन्तः प्रवृत्ति में भी परिवर्तन परिलक्षित हुआ। हम देख चुके हैं कि किस प्रकार भारवि ने कालिदास की रससिद्ध लेखनी के स्थान पर आलंकारिक चमत्कार एवं अजित दुष्य का प्रदर्शन किया। संस्कृत महाकाव्यों के विकास में यह परिवर्तन भारवि से बारम्भ होकर अनवरत गति से प्रवाहित होता रहा जिसे हम माघ, भट्टि तथा श्रीहर्ष प्रभृति कवियों की रचनाओं में देख सकते हैं। इनमें समान रूप से एकात्मकता, कथानक की स्वल्पता, वस्तु-वर्णन का आधिक्य, आलंकारिक चमत्कार-सृष्टि तथा पाणित्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति परिदर्शित होती है। एक गुण इनमें अवश्य दिखाई पड़ा कि इन्होंने 'वर्णन-विधि में कुछ-न-कुछ नवीन कल्पना जोड़ने की सतत चेष्टा की'। उत्तरवर्ती महाकाव्यकारों में तीन प्रकार की प्रवृत्तियां दिखलाई पड़ती हैं। प्रथमतः ऐसी कृतियां हैं जिन्हें पूर्णरूप से चित्रकाव्य कहा जा सकता है। ऐसे महाकाव्यों में यमक काव्यों तथा दयाश्रय श्लेष काव्यों का बाहुल्य दिखाई पड़ा तथा महाकाव्य शान्दिक क्रीड़ा के केन्द्र बन गए। 'नलोदय' एवं 'युधिष्ठिरविजय' यमक काव्य के उदाहरण हैं जिनमें यमक के सभी भेदों के उदाहरण प्रस्तुत किये गए हैं। श्लेष काव्यों में कविराजकृत 'राघवपाणवीय' प्रमुख है। इनमें प्रत्येक पद सभंग एवं अभन्न श्लेष के आधार पर रामायण एवं महाभारत की कथा से सम्बर हो जाता है। द्वितीय श्रेणी के महाकाव्य मुक्तिप्रधान
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy