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________________ संस्कृत नाटक] ( ६१९ ) [संस्कृत नाटक नाटक से सर्वथा भिन्न होते हैं। ग्रीक में किसी प्रकार के रङ्गमंच का विधान नहीं है और वहां नाटक खुले आकाश में जनता के सामने किये जाते जाते थे। पर, संस्कृत नाटकों का अभिनय रङ्गशालाओं में होता था और राजाओं की राजधानियों में नाटकों के प्रदर्शन के लिए रंगमंच के स्वरूप-विधान पर विस्तारपूर्वक विचार प्राप्त होता है। इन सभी दृष्टियों से संस्कृत नाटकों पर ग्रीक-प्रभाव को नहीं स्वीकार किया जा सकता। _____ संस्कृत नाटकों की अखण परम्परा विक्रम की प्रथम शताब्दी से प्राप्त होती है। कालिदास ने 'मालविकाग्निमित्र' की प्रस्तावना में कविपुत्र, भास एवं सोनिड नामक नाटककारों का उल्लेख किया है, किन्तु इनमें केवल भास की ही रचनाएँ उपलब्ध होती हैं । भास के नाटक १९१२ ई. के पूर्व प्रकाश में नहीं आ सके थे। सर्वप्रथम म० म० गणपति शास्त्री ने भासकृत तेरह नाटकों का प्रकाशन १९१२ ई० में किया, जो अनन्तशयन प्रन्थमाला से प्रकाशित हुए। इन नाटकों के भास रचित होने के सम्बन्ध में विद्वानों में अनेक मतवाद हैं दे० भास। भास का समय ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी के आसपास है । इनके नाटक हैं-'दूतवाक्य', 'कणंभार', 'दूतघटोत्कच', 'ऊरुभङ्ग', 'मध्यमव्यायोग', 'पंचरात्र', 'अभिषेक', 'बालचरित', 'अविमारक', 'प्रतिमा', 'प्रतिज्ञायौगन्धरायण', 'स्वप्नवासवदत्तम्' तथा 'दरिद्रचारुदत्त'। इनमें ६ नाटकों का कथानक महाभारत से लिया गया है और दो का रामायण से, शेष पांच नाटक अनुश्रुतियों पर आधृत हैं। इनके नाटकों में नान्दी का अभाव है तथा सुकुमार एवं उक्त दोनों प्रकार के हास का प्रयोग है। इनका 'स्वप्नवासवदत्तम्' नाटकीय प्रविधि एवं भाषा-शैली की दृष्टि से अद्भुत सृष्टि है। इन्होंने चरित्र-चित्रण एवं संवादों के नियोजन में अद्भुत कौशल प्रदर्शित किया है। इनकी शैली सरस है और भाषा में सरलता मिलती है। भास के बाद दूसरे नाटककार हैं महाकवि कालिदास। इन्होंने संस्कृत नाटक की समृद्ध हो रही परम्परा को अपनी प्रतिभा के संस्पर्श मे आलोकित कर उसे प्रौढ़ता प्रदान की है। कालिदास के तीन प्रसिद्ध नाटक हैं-'मालविकाग्निमित्र', 'विक्रमो. वंशीय' तथा 'अभिज्ञानशाकुंतल' । शाकुन्तल में, जो कि इनकी अन्तिम नाट्य कृति है, इनकी प्रतिभा का चूड़ान्त निदर्शन हुआ है। मालविकाग्निमित्र' में मालविका एवं अग्निमित्र की प्रणय-कथा पांच अंकों में वर्णित है। इसमें कवि ने राजाओं के अन्तःपुर में विकसित होने वाले प्रेम, ईर्ष्या, राजा की कामुकता, सपत्नी-कलह तथा राजमहिषी की धीरता और उदात्तता का सफल निदर्शन किया है। यहाँ नाटकीय कौशल की अपेक्षा कवित्व का विलास अधिक प्रदर्शित होता है । इस नाटक का विषय-क्षेत्र अत्यन्त परिमित है। इनके द्वितीय नाटक 'विक्रमोवंशीय' में राजा पुरुरवा एवं उर्वशी की प्रणय-गाथा वर्णित है। इसका नायक पुरूरवा अग्निमित्र की तरह केवल विलासी न होकर पौरुष से सम्पन्न दिखाया गया है। यह धीरोदात्त नायक है और नाटक के प्रारम्भ एवं अन्त में इसके चरित्र को उदात्तता के दर्शन होते हैं। कवि ने ऋग्वेद एवं शतपथ ब्राह्मण में वर्णित उर्वशी एवं पुरुरवा की प्रणय-कथा को इस नाटक का
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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